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इतिहास में ऐसे भी अनेक कथानक दृष्टिगोचर होते हैं जो कि क्षत्रिय कुल में जन्म लेकर भी अपनी पुत्री के साथ विषय सेवन करने और मनुष्य तक का मांस खाने वाले हुए हैं। इसी प्रकार भील जाति में उत्पन्न हुआ शूद्र पुरुष भी गुरुभक्त, कृतज्ञ और बाण - विद्या का वेत्ता दृष्टिगोचर होता है ॥३१॥
प्रद्युम्नवृत्ते गदितं भविन्नः शुनी च चाण्डाल उवाह किन्न | अण्वादिक द्वादशसद्व्रतानि उपासकोक्तानि शुभानि तानि ॥ ३२ ॥
हे संसारी प्राणी, प्रद्युम्नचरित में कहा है कि कुत्ती ने और चाण्डाल ने मुनिराज से श्रावकों के लिए बतलाये गये अणुव्रतादि बारह व्रतों को धारण किया और उनका भली-भांति पालन कर सद्गति प्राप्त की है ||३२||
मुद्रेषु कङ्गोडुकमीक्षमाणः मणिं तु पाषाणकणेष्वकाणः । जातीयतायाः स्मयमित्थमेति दुराग्रहः कोऽपि तमामुदेति ॥३३॥
मूंग के दानों में घोरडू (नहीं सीझने वाला) मूंग को और पाषाण - कणों में हीरा आदि मणि को देखने वाला भी चक्षुष्मान् पुरुष जातीयता के इस प्रकार अभिमान को करताहै, तो यह उसका कोई दुराग्रह ही समझना चाहिए ||३३||
यत्राप्यहो लोचनमैमि वंशे तत्रैव तन्मौक्तिक मित्यशंसे । श्रीदेवकी यत्तनुजापिदूने कंसे भवत्युग्र महीपसूने
।।३४।।
जिस वांस में वंशलोचन उत्पन्न होता है, उसी वांस में मोती भी उत्पन्न होता है । देखो, जिस उग्रसेन महाराज के श्री देवकी जैसी सुशील लड़की पैदा हुई, उसी के कंस जैसा क्रूर पुत्र भी पैदा हुआ ||३४||
जनोऽखिलो जन्मनि शूद्र एव यतेत विद्वान् गुणसंग्रहे वः । भो सज्जना विज्ञतुगज्ञ एवमज्ञाङ्ग जो यत्नवशाज्ज्ञदेवः ||३५|
हे सज्जनो देखो - जन्म समय में सर्व जन शूद्र ही उत्पन्न होते है, ( क्योंकि उस समय वह उत्पन्न होने वाला बालक और उसकी माता दोनों ही अस्पृश्य रहते हैं, पीछे स्नानादि कराकर नामकरण आदि संस्कार किया जाता है, तब वह शुद्ध समझा जाता है ।) विद्वान् पुरुष का लड़का भी अज्ञ देखा जाता है और अज्ञानी पुरुष का लड़का विद्वान् देखा जाता है । इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह जातीयता का अभिमान न करके गुणों के उपार्जन में प्रयत्न करे ॥३५॥
देवकी जन्मन्यौदार्य
धीवरीचरे वीक्ष्यतां
च
क्षुल्लिकात्वमगाद्यत्र पामरो मुनितां
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रे
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॥३६॥
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