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COE 173
आत्मा भवत्यात्मविचारकेन्द्रः कर्तुं मनाङ् नान्यविधिं किलेन्द्रः । कालप्रभावस्य परिस्तवस्तु यदन्यतोऽन्यत्प्रतिभाति वस्तु ॥५॥
यह आत्मा अपने विचारों का केन्द्र बना हुआ है । रात-दिन नाना प्रकार के विचार किया करता है कि अब यह करूंगा, अब वह करूंगा । किन्तु पर की कुछ भी अन्यथा विधि करने के लिए यह समर्थ नहीं है । यह तो काल के प्रभाव की बात है कि वस्तु कुछ से कुछ और प्रतिभासित होने लगती है ॥५॥
इत्येकदेद्दक् समयो बभूव यतो जना अत्र सुपर्वभूवत् । निरामया वीतभयाः समान-भावेनः भेजुर्निजजन्मतानम् ॥६॥
इस प्रकार काल-चक्र के परिवर्तन से यहां पर एक बार ऐसा समय उपस्थित हुआ जब कि यहां के सर्व लोग स्वर्गलोक के समान निरामय (निरोग) निर्भय और समान रूप से अपने जीवन के आनन्द को भोगते थे ॥६॥
दाम्पत्यमेकं कुलमाश्रितानां पृथ्वीसुतैरर्पितसंविधानाः । सदा निरायासभवत्तयात्राध्यगादमीषां खलु जन्मयात्रा
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उस समय बालक और बालिका युगल ही उत्पन्न होते थे और वे ही परस्पर स्त्री-पु - पुरुष बनकर दाम्पत्य जीवन व्यतीत करते थे । कल्पवृक्षों से उनको जीवन-वृत्ति प्राप्त होती थी । उनकी जीवनयात्रा सदा सानन्द बिना किसी परिश्रम या कष्ट के सम्पन्न होती थी ॥७॥
स्वर्ग प्रयाणक्षण एव पुत्र-पुत्र्यौ समुत्पाद्य तकावमुत्र । सञ्जग्मतुर्दम्पतितामिहाऽऽरादेतौ पुन सम्ब्रजतोऽभ्युदाराम् ॥८॥
उस समय के स्त्री-पुरुष स्वर्ग जाने के समय ही पुत्र और पुत्री को उत्पन्न करके परलोक चले जाते थे और ये पुत्र-पुत्री दोनों बड़े होने पर पति-पत्नी बनकर उदार भोगों को भोगते रहते थे ॥ ८ ॥
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चतुर्गुणस्तत्र तदाद्यसार एवं द्वितीयस्त्रिगुणप्रकार: सत्याख्ययोः स्त्री-धवयोरिवेदं युगं समाप्तिं समगादखेदम् ॥९॥
उक्त प्रकार से इस अवसर्पिणी काल के आदि में युगल जन्म लेने वाले जीवों का चार कोड़ाकोड़ी सागरोपम का प्रथम काल और तीन कोड़ा कोड़ी सागरोपम का दूसरा काल था, जो कि सत्य युग के नाम से कहा जाता है । इस समय में उत्पन्न होने वाले स्त्री और पुरुष ईर्ष्या-द्वेष आदि से रहित सदा प्रसन्न चित्त रहते थे और कल्पवृक्षों से प्रदत्त भोगोपभोगों को आनन्द से भोगते थे । समय के परिवर्तन के साथ यह युग समाप्त हुआ ||९||
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