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यथा स्वयं वाञ्छति तत्परेभ्यः कुर्याज्जनः केवलकातरेभ्यः । तदेतदेकं खलु धर्ममूलं परन्तु सर्वं स्विदमुष्य तूलम् ॥६॥ मनुष्य जैसा व्यवहार स्वयं अपने लिए चाहते है, वैसा ही व्यवहार उसे दूसरे दीन- कायर पुरुषों तक के साथ करना चाहिए । यही एक तत्त्व धर्म का मूल है और शेष सर्व कथन तो इसी का विस्तार है ॥६॥
निहन्यते यो हि परस्य हन्ता पातास्तु पूज्यो जगतां समन्तात् । किमङ्ग ! न ज्ञातमहो त्वयैव द्दगञ्जनायाङ्गुलिवरञ्जितैव ॥ ७ ॥ जो दूसरों को मारता है, वह स्वयं दूसरों के द्वारा मारा जाता है और जो दूसरों की रक्षा करता है, वह सर्व जगत् में पूज्य होता है । हे वत्स, क्या तुम्हें यह ज्ञात नहीं है कि आंख में काजल लगाने वाली अंगुलि पहले स्वयं ही काली बनती है ॥७॥
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तथाप्यहो स्वार्थपरः परस्य निकृन्तनार्थं यतते नरस्य । नानाच्छलाच्छादिततत्त्ववेदी नरो न रौतीति किमात्मखेदी ॥८॥
तथापि आश्चर्य तो इस बात का है कि मनुष्य अपने स्वार्थ के वश में तत्पर होकर दूसरे मनुष्य के मारने या कष्ट पहुँचाने के लिए निरन्तर प्रयत्न करता है और नाना प्रकार के छलों से यथार्थ सत्य को छिपा कर दूसरों को धोखा देता है । दूसरों को धोखा देना वास्तव में अपने आपको धोखा देना है । ऐसा मनुष्य करणी के फल मिलने पर क्या नहीं रोवेगा ? अर्थात् अवश्य ही रोवेगा ॥८॥
अजाय सम्भाति दधत् कृपाणं नाकं ददामीति परिब्रुवाणः । भवेत्स्ववंश्याय तथैव किन्न यथार्पयन् मोदकमप्यखिन्नः ॥९॥ आश्चर्य है कि लोग 'स्वर्ग भेज रहे हैं' ऐसा कहते हुए बकरे के गले पर तलवार चलाते हैं। किन्तु इस प्रकार यदि यज्ञ में पशु के मारने पर सचमुच उसे स्वर्ग मिलता है, तो फिर अपने वंश वाले लोगों को ही क्यों नहीं स्वर्ग भेजते ? जैसे कि लाडू बांटते हुए पहले अपने ही बच्चों को सहर्ष देते हैं ॥९॥
कस्मै भवेत्कः सुख-दुःख कर्ता स्वकर्मणोऽङ्गी परिपाकभर्ता । कुर्यान्मनः कोमलमात्मनीनं स्वशर्मणे वीक्ष्य नरोऽन्यदीनम् ॥१०॥
यदि वास्तव में देखा जाय तो कौन किसके लिए सुख या दुःख देता है । प्रत्येक प्राणी अपने अपने किये कर्मों के परिपाक को भोगता है । जब मनुष्य किसी के दुःख दूर करने के लिए कोमल चित्त करता है, तो उसका वह कोमल भाव उसे सुखदायक होता है और जब दूसरे के लिए कठोर भाव करता है, तो वह उसे ही दुःख दायक होता है ||१०||
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