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इन्द्रभूति को जाते हुए देखकर यह क्या है, इस प्रकार के विचार से आश्चर्य-निमग्न चित्त वे अग्निभूति आदि शेष सर्व आचार्य अपने-अपने शिष्य-परिवार के साथ चल दिये । आगे जाने पर उन्होंने 'सर्वज्ञ जिनकी जय हो' ऐसा देवताओं के द्वारा किया गया जय-जयकार शब्द सुना ॥१७॥
एषोऽखिलज्ञः किमु येन सेवा-परायणाः सन्ति समस्तदेवाः ।
सभाऽप्यभिव्यक्तनभास्वतोऽहस्करस्य भातीव विभो ममोहः ॥१८॥ क्या यह वास्तव में सर्वज्ञ है जिसके प्रभाव से ये समस्त देवगण सेवा-परायण हो रहे हैं । यह । सभा भी सूर्य की प्रभा से अधिक प्रभावान् होती हुई आकाश को व्याप्त कर रही है । हे प्रभो ! यह मेरे मन में विचार हो रहा है ॥१८॥
यथा रवेरुद्गमनेन नाशो ध्वान्तस्य तद्वत्सहसा प्रकाशः । मनस्सु तेषामनुजायमानश्चमच्चकाराद्भुतसम्विधानः ॥१९॥
जैसे सूर्य के उदय होने से अन्धकार का नाश हो जाता है, वैसे ही उन लोगों के हृदय का अज्ञान विष्ट हो गया और उनके हृदयों में चित्त को चमत्कृत करने वाला प्रकाश सहसा प्रकट हुआ ॥१९॥
यस्यानु तद्विप्रसतामनीकं उद्दिश्य तं साम्प्रतमग्रणीकम् । इन्द्रप्रभूतिं निजगाद देवः भो पाठकाः यस्य कथा मुदे वः ॥२०॥ जिसके पीछे उन ब्राह्मण-विद्वानों की सेना लग रही है, उनके अग्रणी उस इन्द्रभूति को उद्देश्य करके श्री वीर जिनदेव ने जो कहा, उसे हे पाठकों ! सुनो, उसकी कथा तुम सबके लिए भी आनन्दकारी है ॥२०॥
हे गौतमान्तस्तव कीद्दगेष प्रवर्तते सम्प्रति काकुलेशः ।
शृणत चेद्वद्वदवद्धि जीवः परत्र धीः किन्न तवात्मनीव ॥२१॥ भगवान् ने कहा - हे गौतम ! तुम्हारे मन में इस समय यह कैसा प्रश्न उत्पन्न हो रहा है ? सुनो, यदि जीव जल के बबूला के समान है, तो फिर अपने समान दूसरे पाषाण आदि में भी वह बुद्धि क्यों नहीं हो जाती ॥२१॥
अहो निजीयामरताभिलाषी भव॑श्च भूयादुपलब्धपाशी । नरः परस्मायिति चित्रमेतत्स्वयं च यस्मात् परवानिवेतः ॥२२॥
आश्चर्य है कि अपनी अमरता का अभिलाषी होता हुआ यह प्राणी दूसरे के प्राण लेने के लिए पाश लिए हुए है ? किन्तु आश्चर्य है कि स्वयं तू भी दूसरों के लिए पर है, ऐसा क्यों नहीं सोचता ? ॥२२॥
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