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लभेत मुक्तिं परमात्मबुदिः समन्ततः सम्प्रतिपद्य शुद्धिम् । इत्युक्तिलेशेन स गौतमोऽत्र बभूव सद्योऽप्युपलब्धगोत्रः ॥२८॥
परमात्म-बुद्धि वाला जीव सर्व प्रकार से अन्तरंग और बाह्य शुद्धि को प्राप्त कर अर्थात् द्रव्य कर्म(ज्ञानावरणादिक) भावकर्म (राग-द्वेषादिक) और नोकर्म (शरीरादिक) से रहित होकर मुक्ति को प्राप्त करता है । इस प्रकार भगवान् के अल्प वचनों से ही वह गौतम शीघ्र सम्यग्ज्ञान को प्राप्त कर सन्मार्ग को प्राप्त हुआ ॥२८॥
समेत्य तत्राऽप्यनुकूलभावं वीरप्रभुः प्राह पुनश्च तावत् ।
भो भव्य ! चित्तेऽनुभवाऽऽत्मनीने तत्त्वस्य सारं सुतरामहीने ॥२९॥ तदनन्तर अनुकूल समय (अवसर) पाकर पुनः वीर प्रभु ने कहा- हे भव्य ! अपने हीनता रहित उदार चित्त में तत्त्व के सार को अनुभव करो ॥२९॥
जानाम्यनेकाणुमितं शरीरं जीवः पुनस्तत्प्रमितं च धीरः । धीरस्ति यस्मिन्नधिकारपूर्णा कर्मानुसारेण विलब्धघूर्णा ॥३०॥
यह शरीर अनेक पौद्गलिक परमाणुओं से निर्मित है, इससे जीव सर्वथा भिन्न स्वरूप वाला होते हुए भी उस शरीर के ही प्रमाण है । यतः जीव इस शरीर में रहता है, अतः लोगों की बुद्धि कर्म के अनुसार विपरीतता को धारण कर शरीर को ही जीव मानने लगती है ॥३०॥
समेति नैष्कर्म्यमुतात्मनेयं नैराश्यमभ्येत्य चराचरे यः । निजीयमात्मानमथात्र पुष्यन् स एव शान्तिंलभते मनुष्यः ॥
जो पुरुष इस चराचर जगत् में निराशा को प्राप्त होकर अपने आप निष्कर्मता को प्राप्त होता है, वही मनुष्य अपनी आत्मा को पुष्ट करता हुआ शान्ति को प्राप्त करता है ॥३१॥
नरस्य नारायणताऽऽप्तिहे तो जनुर्व्यतीतं भवसिन्धुसे तो । परस्य शोषाय कृतप्रयत्नं काक प्रहाराय यथैव रत्नम् ॥३२॥ अस्माभिरद्यावधिमानवायुर्व्यर्थीकृतं तस्य किमस्ति जायुः । इत्युक्तिलेशे सति गौतमस्य प्राह प्रभुः सर्वजनैकशस्यः ॥३३॥ (भगवान् के यह दिव्य वचन सुनकर गौतम बोले-) हे भव-सिन्धु-सेतु भगवन् ! नारायणता (परमात्मदशा) की प्राप्ति के कारण भूत इस मनुष्य के जन्म को मैंने यों ही व्यतीत कर दिया । आज तक मैंने दूसरे के शोषण करने के लिए ही प्रयत्न किया । जैसे कोई काक को मारने के लिए रत्न को फेंक देवे,
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