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बभूव तच्चोतसि एष तर्क: प्रतीयते तावदयं स्विदर्कः ।
यतो ममान्तस्तमसो निरासः सम्भूय भूयादतुलः प्रकाशः ॥२३॥ भगवान् की यह वाणी सुनकर इन्द्रभूति के चित्त में यह तर्क (विचार) उत्पन्न हुआ कि यह वास्तव में सूर्य के समान सर्व तत्त्वों के यथार्थ प्रकाशक सर्वज्ञ प्रतीत होते हैं । इनके द्वारा मेरे अन्तरंग के अन्धकार का विनाश होकर मुझे अतुल प्रकाश प्राप्त होगा, ऐसी आशा है ॥२३॥
एवं विचार्याथ बभूव भूय उपात्तपापप्रचयाभ्यसूयः । शुश्रूषुरीशस्य वचोऽतएव जगाद सम्मञ्जु जिनेशदेवः ॥२४॥ ऐसा विचार कर पुनः उपार्जन किये हुए पाप-समुदाय से मानों ईर्ष्या करके ही इन्द्रभूति गौतम गणधर ने भगवान् के वचन सुनने की और भी इच्छा प्रकट की, अतएव श्री वीर जिनेन्द्रदेव की मधुर वाणी प्रकट हुई ॥२४॥
सचेतनाचेतनभेदभिन्नं . ज्ञानस्वरूपं च रसादिचिह्नम् ।
क्रमाद् द्वयं भो परिणामि नित्यं यतोऽस्ति पर्यायगुणैरितीत्यम् ॥२५॥ ___ हे गौतम ! यह समस्त जगत् सचेतन और अचेतन इन दो प्रकार के भिन्न-भिन्न द्रव्यों से भरा हुआ है । इनमें क्रमशः सचेतन द्रव्य तो ज्ञानस्वरूप हैं और अचेतन द्रव्य ज्ञानरूप चेतना से रहित रूप .. रसादि चिह्न वाला है । ये दोनों ही प्रकार के द्रव्य परिणामी और नित्य हैं, क्योंकि वे सब गुण और पर्यायों से संयुक्त हैं ॥२५॥
भावार्थ - गुणों की अपेक्षा सर्व द्रव्य नित्य हैं और पर्यायों की अपेक्षा सभी द्रव्य अनित्य या परिणामी
अनादितो भाति तयोर्हि योगस्तत्रैक्यधीश्चेतनकस्य रोगः । ततो जनुसृत्युमुपैति जन्तुरुपद्रवायानुभवैकतन्तुः ॥२६॥
अनादि से ही सचेतन आत्मा और अचेतन शरीरादि रूप पुद्गल द्रव्य का संयोग हो रहा है । इन दोनों में ऐक्य बुद्धि का होना चेतन जीव का रोग है - बड़ी भूल है । इस भूल के कारण ही यह जन्तु प्रत्येक भव में जन्म और मरण को प्राप्त होता है और यह भव-परम्परा ही उपद्रव के लिए है, अर्थात् दुःखदायक है ॥२६॥
श्वभ्रं रुषा लुब्धकताबलेन कीटादितां वा पशुतां छलेन । परोपकारेण सुरश्रियं स सन्तोषतो याति नरत्वशंसः ॥२७॥
यह जीव अपने क्रोधरूप भाव से नरक जाता है, लुब्धकता से कृमि-कीट आदि की पर्याय पाता है, छल-प्रपंच से पशुपना को प्राप्त होता है, परोपकार से देव-लक्ष्मी को प्राप्त करता है और सन्तोष से मनुष्यपने को पाता है ॥२७॥
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