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छत्राभिधे पुर्यमुकस्थलस्य श्रीवीरमत्यामभिनन्दनस्य सुतोऽभवं नन्दसमाह्वयोऽहमाप्त्वा कदाचिन्मुनिमस्तमोहम् ॥३५॥ समस्तसत्त्वैक हितप्रकारि - मनस्तयाऽन्ते क्षपणत्वधारी उपेत्य वै तीर्थक रत्वनामाच्युतेन्द्र तामप्यगमं सुदामा ॥३६॥
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पुनः उसी धातकी खण्डस्थ पूर्व विदेह क्षेत्र के उस पुष्कल देश में छत्रपुरी के राजा अभिनन्दन और रानी श्री वीरमती के नन्द नाम का पुत्र हुआ । वहां किसी समय मोह-रहित निर्ग्रन्थ मुनि को पाकर, उनके समीप क्षपणकत्व (दिगम्बरत्व) को धारण कर लिया और समस्त प्राणियों की हितकारिणी मानसिक प्रवृत्ति होने से तीर्थकरत्व नामकर्म का बन्धकर अच्युत स्वर्ग की इन्द्रता को प्राप्त हुआ, अर्थात् उत्तम माला का धारक इन्द्र हुआ ॥३५-३६॥
यदेतदीक्षे जगतः कुवृत्तं तस्याहमेवास्मि कुबीजभृत्तं । चिकित्सिता भुवि मच्चिकित्सा विना स्वभावादुत कस्य दित्सा ॥३७॥
इस प्रकार आज जगत् में जो यह कदाचार देख रहा हूँ, उसका मैं ही तो कुबीजभूत हूँ, अर्थात् पूर्व भवों में मैंने ही जो मिथ्या मार्ग का बीज बोया है, वही आज नाना प्रकार के मत-मतान्तरों एवं असदाचारों के रूप में वृक्ष बनकर फल-फूल रहा है । इसलिए जगत् की चिकित्सा करने की इच्छा रखने वाले मुझे पहिले अपनी ही चिकित्सा करनी चाहिए । जब तक मैं स्वयं शुद्द (निरोग या निराग ) नहीं हो जाऊं, तब तक स्वभावतः दूसरे के लिए औषधि देने की इच्छा कैसे सम्भव है ? ||३७|| भजे देवासहयोगं बहिष्कारं
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सिद्धिमिच्छन् अपि कुर्याद्
धनादिभिः मत्सरादेरिहात्मनः
॥३८॥
आत्म-शुद्धि रूप सिद्धि की इच्छा करने वाले को धन- कुटुम्बादि से असहयोग करना ही चाहिए, तथा अपनी आत्मा के परम शत्रु मत्सरादिक भावों का भी बहिष्कार करना चाहिए ||३८||
स्वराज्यप्राप्तये
धीमान्
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नो
चेत्परिस्खलत्येव
सत्याग्रह धुरन्धरः वास्तव्यादात्मवर्त्मनः
॥३९॥
स्वराज्य (आत्म- राज्य) प्राप्ति के लिए बुद्धिमान् पुरुष को सत्याग्रह रूप धुराका धारक होना चाहिए। यदि उसका सत्य के प्रति यथार्थ आग्रह न होगा, तो वह अपने वास्तविक आत्म शुद्धि के मार्ग से परिभ्रष्ट हो जायगा ॥३९॥
बहु कृत्वः
किलोपात्तो ऽसहयोगो
मया पुरा 1
न हि किन्तु बहिष्कारस्तेन सीदामि साम्प्रतम्
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पहिले मैंने अपने पूर्व भवों में धन कुटुम्ब आदि से बहुत बार असहयोग तो किया, किन्तु राग-द्वेषादि रूप आत्म-शत्रुओं का बहिष्कार नहीं किया । इसी कारण से आज मैं दुःख भोग रहा हूँ ||४०||
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