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अथ अष्ठम अगर
पितापि तावदावाञ्छीत् कर्तुं जन्ममहोत्सवम् । किमु सम्भवतान्मोदो मोदके परभक्षिते ॥१॥
अथानन्तर पिता श्री सिद्धार्थ ने भी भगवान् के जन्म-महोत्सव को करने की इच्छा की । सो ठीक ही है, क्योंकि दूसरे के द्वारा मोदक (लड्डू) के खाये जाने पर क्या दर्शक को भी मोदक खाने जैसा प्रमोद संभव है ? कभी नहीं ॥१॥
समभ्यवाञ्छि यत्तेन प्रागेव समपादि तत् ।
देवेन्द्रकोषाध्यक्षेण वाञछा वन्ध्या सतां न हि ॥२॥ सिद्धार्थ ने वीर भगवान् के जन्म महोत्सव मनाने के लिए जो-जो सोचा, उसे इन्द्र के कोषाध्यक्ष कुबेर ने सोचने से पहिले ही सम्पादित कर दिया । सो ठीक ही है, क्योंकि सुकृतशालियों की वांछा कभी बन्ध्या (व्यर्थ) नहीं होती है ॥२॥
सुधाश्रयतया ख्यातं चित्रादिभिरलङकृतम् । रेखानुविद्धधामापि स्वर्गवत्समभात्पुरम्
॥३॥ चूने की सपेदी के आश्रय से उज्जवल, नाना प्रकार के चित्र आदि से अलंकृत, एक पंक्ति-बद्ध भवन वाला वह नगर स्वर्ग के समान सुशोभित हुआ । जैसे स्वर्ग सुधा (अमृत) से, चित्रा आदि अप्सराओं से और लेखों (देवों) से युक्त रहता है ॥३॥
मानोन्नता गृहा यत्र मत्तवारणराजिताः । विशदाम्बरचुम्बित्वात्सम्बभूवुनूपा इव
॥४॥ वहां पर अपनी ऊंचाई से उन्नत सुन्दर बरामदों से शोभित भवन निर्मल आकाश को चूमने वाले होने से राजाओं के समान प्रतीत हो रहे थे । जैसे राजा लोग निर्मल वस्त्र के धारक, मदोन्मत्त गज सेना से युक्त एवं सन्मान से संयुक्त होते हैं ॥४॥
नट तां सटतामेवं दधत्संकटतामपि । असंकटमंभूद्राजस्थानं निर्दोषदर्शनम्
॥५ ॥ नृत्य करते हुए नर्तकों से और आने-जाने वाले लोगों से संकटपने को (भीड़-भाड़ को) धारण करता हुआ भी वह राज-भवन संकट रहित और निर्दोष दिखाई दे रहा था ॥५॥
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