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देखो, आश्चर्य तो इस बात का है कि आज लोग इस संसार में व्यर्थ कल्पना किये गये (अपने मनमाने) ईश्वर की सत्ता सिद्ध करने के लिए जैसी शास्त्रार्थ रूप लड़ाई लड़ रहे हैं, वैसी लड़ाई तो आज भूमि, स्त्री और धनादि कारणों के लिए नहीं लड़ी जा रही है, यह कैसी विचित्र धारणा है ॥१६॥
दुर्मोचमोहस्य हतिः कुतस्तथा केनाप्युपायेन विदूरताऽपथात् । परस्पर प्रेमपुनीतभावना भवेदमीषामितिं मेऽस्ति चेतना ॥१७॥
अतएव इस दुर्मोच (कठिनाई से छूटने वाले) मोह का विनाश कैसे हो, लोग किस उपाय से उत्पथ (कृमार्ग) त्याग कर सत्पथ (सुमार्ग) पर आवें और कैसे इनमें परस्पर प्रेम की पवित्र भावना जागृत हो। यही मेरी चेतना है अर्थात् कामना है । (ऐसा भगवान् उस समय विचार कर रहे थे ।) ॥१७॥
जाडचं पृथिव्याः परहर्तुमेव तच्चिन्तापरे तीर्थकरे क्रुधेव तत् ।
व्याप्तुं पृथिव्यां कटिबद्धभावतामेतत्पुनः सम्ब्रजति स्म तावता ॥१८॥
इस प्रकार भगवान् ने पृथ्वी पर फैली हुई जड़ता (मूढ़ता) को दूर करने का विचार करते समय मानों उन पर क्रोधित हुए के समान सारी पृथ्वी पर तत्परता से कटिबद्ध होकर जाड़ा फैल गया । अर्थात् शीतकाल आ गया ॥१८॥
कन्याप्रसूतस्य धनु :प्रसङ्ग तस्त्वनन्यमेवातिशयं प्रविभ्रतः ।
शीतस्य पश्यामि पराक्रमं जिन श्रीकर्णवत्कम्पकरं च योगिनः ॥१९॥ हे जिन भगवान् ! कन्या राशि से उत्पन्न हुए और धनु राशि के प्रसंग से अतिशय वृद्धि को धारण करने वाले, तथा योगियों को कंपा देने वाले इस शीतकाल को मैं श्री कर्ण राजा के समान पराक्रमी देखता हूँ ॥१९॥
भावार्थ - जैसे कर्ण राजा कुमारी कन्या कुन्ती से उत्पन्न हुआ और धनुर्विद्या को प्राप्त कर उसके निमित्त से अति प्रतापी और अजेय हो गया था, जिसका नाम सुनकर योगीजन भी थर्रा जाते थे, उसी प्रकार यह शीतकाल भी उसी का अनुकरण कर रहा है, क्योंकि यह भी कन्या राशिस्थ सूर्य से उत्पन्न होकर धन राशि पर आने से अति उग्र हो रहा है ।
कुचं समुद्घाटयति प्रिये स्त्रियाः समुद्भवन्ती शिशिरोचितश्रियाः । तावत्करस्पर्शसुखैकलोपकृत् सूचीव रोमाञ्चततीत्यहो सकृत् ॥२०॥ इस समय प्रिय के द्वारा स्त्री के कुचों को उघाड़ दिये जाने पर शीत के मारे उन पर रोमांच हो आते हैं, जो कि उसके कर-स्पर्श करने पर सुख का लोप कर उसे सुई के समान चुभते हैं ॥२०॥
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