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4रररररररररररररररररर विचार हर समय विभावसु (अग्नि) के समीप बैठे रहने के बने रहते हैं । दूसरा अर्थ यह कि इस समय प्रसिद्ध आर्षग्रंथों के पत्र तो जीर्ण हो गये हैं, अतः उसका अभाव सा हो रहा है और लोग पं. दरबारीलाल की विचार-धारा से प्रभावित हो रहे हैं और विकारी विचारों को अंगीकार कर रहे हैं । ॥३४॥ __भावार्थ - कवि ने अपने समय के प्रसिद्ध सुधारक पं. दरवारीलाल का उल्लेख 'दरवारि-धारा' पद से करके उन के प्रचार कार्य को अनुचित बतलाया है ।
शीतं वरीवर्ति विचार-लोपि स्वयं सरीसति समीरणोऽपि ।
अहो मरीमति किलाकलत्रः नरो नरीनर्त्ति कुचोष्मतन्त्रः ॥३५॥ इस हेमन्त ऋतु में वि अर्थात् पक्षियों के चार (संचार) का लोप करने वाला शीत जोर से पड़ रहा है, समीरण (पवन) भी स्वयं जोर से चल रहा है, स्त्री-रहित मनुष्य मरणोन्मुख हो रहे हैं और स्त्री के स्तनों की उष्मा से उष्ण हुए मनुष्य नाच रहे हैं, अर्थात् आनन्द मना रहे हैं ॥३५॥
नतभूवो लब्धमहोत्सवेन समाहतः श्रीकर पल्लवेन ।
मुहु र्निपत्योत्पततीह कन्दुमुदाऽधरोदाररसीव बन्धु ॥३६॥ नतभ्र युवती के आनन्द को प्राप्त श्रीयुक्त कर-पल्लव से ताड़ित किया हुआ यह कन्दुक रूप पुरुष नीचे गिरता है और हर्ष से युक्त होकर के उसके अधरों के उदार रस को पान करने के इच्छुक पति के समान बार बार ऊपर को उठता है ॥३६।।
कन्दुः कु चाकारधरो युवत्या सन्ताडयते वेत्यनयोगधारि । पदोः प्रसादाय पतत्यपीति कर्णोत्पलं यन्नयनानुकारि ॥३७॥ कुच के आकार को धारण करने वाला यह कन्दुक युवती स्त्री के द्वारा ताड़ित किया जा रहा है, ऐसा विचार करने वाला और उसके नेत्र-कमल का अनकरण वाला यह कर्णो कनफूल) मानों उसे प्रसन्न करने के लिए अर्थात् स्त्री से अपना अपराध माफ कराने के लिए उसके पैरों में आ गिरता है ॥३७॥
भावार्थ - गेन्द खेलते समय कनफूल स्त्रियों के पैरों में गिर पड़ता है, उसे लक्ष्य करके कवि ने उक्त उत्प्रेक्षा की है ।
श्रीगेन्दुकेलौ विभवन्ति तासां नितम्बिनीनां पदयोर्विलासाः । ये ये रणन्नू पुरसाररासा यूनां तु चेतःपततां सुभासाः ॥३८॥
श्री कुन्दक-क्रीड़ा में संलग्न उन गेन्द खेलने वाली नितम्बिनी स्त्रियों के शब्द करते हुए नूपुरों से युक्त चरणों के विलास (पद-निक्षेप) युवाजनों के चित्त रूप पक्षियों के लिए गिद्ध पक्षी के आक्रमण के समान प्रतीत होते हैं ॥३८॥
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