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सोलहवें स्वप्न में तुमने जो धूम-रहित निर्मल अग्नि का समूह देखा है, सो हे देवि ! तुम्हारा यह पुत्र भी चिरकालीन, दारुण परिपाकवाले कर्मों का समूह भस्म करके अपने निर्मल आत्म-स्वरूप को प्राप्त करेगा ॥५६॥
समुन्नतात्मा गजराजवत्तथा धुरन्धरोऽसौ धवलोऽवनौ यथा । स्वतन्त्रवृत्तिः प्रतिभातु सिंहवद्रमात्मवच्छश्वदखण्डितोत्सवः ॥५७॥ द्विदामवत्स्यात्सुमनःस्थलं पुनः प्रसादभूमिः शशिवत्समस्तु नः । दिनेशवद्यः पथदर्शको भवेद् द्विकुम्भवन्मङ्गलकृजवजवे ॥५८॥ विनोदपूर्णो झषयुग्मसम्मितिः समः पयोधेः परिपालितस्थितिः । तटाकवद्देहभृतां क्लमच्छिदे सुपीठवद् गौरवकारि सम्विदे ॥५९॥ विमानवद्यः सुरसार्थ-संस्तवः सुगीततीर्थः खलु नागलोकवत् ।
गुणैरुपेतो भुवि रत्नराशिवत्पुनीततामभ्युपयातु वह्निवत् ॥६०॥ ___ हे कल्याणभाजिनी प्रिय रानी ! सर्व स्वप्नों का सार यह है कि तुम्हारा यह होने वाला पुत्र संसार में गजराज के समान समुन्नत महात्मा, धवल घुरन्धर (वृषभ) के समान धर्मधुरा का धारक, सिंह के समान स्वतन्त्र वृत्ति, रमा (लक्ष्मी) के समान निरन्तर अखण्ड उत्सवों से मण्डित, माल्यद्विक के समान सुमनों (पुष्पों और सज्जनों) का स्थल, चन्द्र के समान हम सबकी प्रसादभूमि, दिनेश (सूर्य) के समान संसार में मोक्षमार्ग का प्रदर्शक, कलश-युगल के समान जगत् में मङ्गल-कारक, मीन-युगल के समान विनोद-पूर्ण, समुद्र के समान लोक एवं धर्म की मर्यादा का परिपालक, सरोवर के समान संसार तापसन्तप्त शरीरधारियों के क्लम (थकान) का छेदक, सिंहासन के समान गौरवकारी, विमान के समान देव-समूह से संस्तुत, नागलोक के समान सुगीत-तीर्थ, रत्नराशि के समान गुणों से संयुक्त और अग्नि के समान कर्मरूप ईंधन का दाहक एवं पवित्रता का धारक होगा ॥५७-५८-५९-६०॥
देवि ! पुत्र इति भूत्रयाधिपो निश्चयेन तव तीर्थनायकः । गर्भ इष्ट इह वै सतां 'क्वचित्स्वप्नवृन्दमफलं जायते ॥६१॥
हे देवि ! तुम्हारा गर्भ में आया हुआ यह पुत्र निश्चय से तीनों लोकों का स्वामी और तीर्थ-नायक (तीर्थङ्कर) होगा । क्योंकि सत्-पुरुषों के स्वप्न-समूह कभी निष्फल (फल-रहित) नहीं होते हैं ॥६१॥
वाणीमित्थममोघमङ्गलमयीमाकर्ण्य सा स्वामिनो, वामोरुश्च महीपतेर्मतिमतो मिष्टामथ श्रीमुखात् ।
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