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रविणा ककुविन्द्रशासिका स्फुटपाथोजकुलेन वापिका । नवपल्लवतो यथा लता शुशुभे साऽऽशु शुभेन वा सता ॥३९॥
वह रानी उत्पन्न हुए उस सुन्दर शिशु के द्वारा ऐसी शोभित हुई जैसे कि सूर्य के द्वारा इन्द्रशासित पूर्व दिशा, विकसित कमल-समूह से वापिका और नव-पल्लवों से लता शोभित होती है ॥३९॥
सदनेक सुलक्षणान्विति-तनयेनाथ लसत्तमस्थितिः । रजनीव जनी महीभुजः शशिनाऽसौ प्रतिकारिणी रुजः ॥४०॥
उस समय वह उत्तम स्थिति प्राप्त राजा की रानी रजनी के समान शोभित हुई । जैसे रात्रि विकसित अनेक नक्षत्रों के साथ चन्द्र से युक्त होकर शोभित होती है, उसी प्रकार रानी उत्तम अनेक शुभ लक्षण वाले पुत्र से प्रसन्न हो रही थी । जैसे चांदनी रात भय रूप रोग का प्रतीकार करती है, उसी प्रकार यह रानी संसार के भय को मिटाने वाली है ॥४०॥
सौर भावगतिस्तस्य पद्मस्येव वपुष्यभूत् । याऽसौ समस्तलोकानां नेत्रालिप्रतिकर्षिका ॥४१॥
उस उत्पन्न हुए पुत्र के शरीर से पद्म के समान सौरभ (सुगन्ध) निकल रहा था, और दूसरा अर्थ यह कि वह स्वर्ग से आया है, ऐसा स्पष्ट ज्ञात हो रहा था । इसीलिए वह पुत्र के शरीर से निकलने वाली सौरभ-सुगन्धि समस्त दर्शक लोगों के नेत्र रूपी भौंरो को अपनी ओर आकर्षित कर रही थी ४१॥
शुक्ते मौक्तिक वत्तस्या निर्मलस्य वपुष्मतः । सद्भिरादरणीयस्योद्भवतोऽपि पवित्रता
॥४३।। जिस प्रकार सीप से उत्पन्न हुआ मोती स्वभाव से निर्मल, सत्पुरुषों से आदरणीय और पवित्र होता है, उसी प्रकार उस रानी से उत्पन्न हुए इस पुत्र के भी निर्मलता, सन्तों के द्वारा आदरणीयता और स्वभावतः पवित्रता थी ॥४२॥
रत्नानि तानि समयत्रयमुत्तराशा धीशो ववर्ष खलु पञ्चदशेति मासान् । अद्याध इत्थमिह सोऽद्य भुवि प्रतीत एषोऽपि सन्मणिरभूत् त्रिशलाखनीतः ॥४३॥
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