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झषकर्क टनक निर्णये वियदब्धावुत तारकाचये । कुवलप्रकरान्वये विधुं विबुधाः कौस्तुभमित्थमभ्यधुः ॥११॥
मीनों, केंकड़ों और नाकुओं का निश्चय है जहां ऐसे आकाश रूप समुद्र में मोतियों का अनुकरण ताराओं का समूह कर रहा है । वहीं पर देव लोगों ने चन्द्रमा को यह कौस्तुभमणि है, ऐसा कहा ॥११॥
भावार्थ - जैसे समुद्र में मीन, कर्कट और मकरादि जल-जन्तु एवं मौक्तिक कौस्तुभमणि आदि होते हैं, उसी प्रकार देव लोगों ने आकाश को ही समुद्र समझा, क्योंकि वहां उन्हें मीन, मकर आदि राशि वाले ग्रह दिखाई दिये ।
पुनरेत्य च कुण्डिनं पुराधिपुरं त्रिक्रमणेन ते सुराः । उपतस्थुरमुष्य गोपुराग्र भुवीत्थं जिनभक्ति सत्तुराः ॥१२॥
पुनः जिन-भक्ति में तत्पर वे देव लोग कुण्डनपुर नगर आकर और उसे तीन प्रदक्षिणा देकर उस नगर के गोपुर की अग्रभूमि पर उपस्थित हुए ॥१२॥
प्रविवेश च मातुरालयमपि मायाप्रतिरूपमन्वयम् ।. विनिवेश्य तदङ्गतः शची जिनमेवापजहार शुद्धचित् ॥१३॥
पुनः इन्द्राणी ने माता के सौरि-सदन में प्रवेश किया । और मायामयी शिशु को माता के पास रखकर उनके शरीर के समीप से वह शुद्ध चित्तवाली शची जिन भगवान् को उठा लाई ॥१३॥
हरये समदाजिनं यथाऽम्बुधिवेलागतकौस्तुभं तथा । अवकृष्य सुभक्तितोऽचिरात् त्रिशलाया उदितं शचीन्दिरा ॥१४॥
पुनः उस शची रूपी लक्ष्मी ने समुद्र की वेला को प्राप्त हुए कौस्तुभमणि के समान त्रिशला माता से प्रगट हुए जिन भगवान् को लाकर शीघ्र ही अति भक्ति से हरि रूप इन्द्र को सौंप दिया ॥१४॥
जिनचन्द्रमसं प्रपश्य तं जगदाह्लादकरं समुन्नतम् ।
करकञ्जयुगं च कुड्मलीभवदिन्द्रस्य बभौ किलाऽच्छलि ॥१५॥
जगत् को आह्लादित करने वाले पूर्णमासी के चन्द्रमा के समान समुन्नत जिन चन्द्र को देखकर इन्द्र के छल-रहित कर कमल-युगल मुकुलित होते हुए शोभा को प्राप्त हुए ॥१५॥
भावार्थ - चन्द्र को देखकर जैसे कमल संकुचित हो जाते हैं, उसी प्रकार भगवान् रूप चन्द्रमा को देखकर इन्द्र के हस्त रूप कमल युगल भी संकुचित हो गये (जुड़ गये) । अर्थात् इन्द्र ने हाथ जोड़कर भगवान् को नमस्कार किया ।
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