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अन्तः पुरे तीर्थकृतोऽवतारः स्यात्तस्य सेवैव सुरीसुसारः । शक्राज्ञया लिप्सुरसौ त्वदाज्ञां सुरीगणः स्यात्सफलोऽपि भाग्यात् ॥५॥
अन्तःपुर में महारानी प्रियकारिणी के गर्भ में तीर्थङ्कर भगवान् का अवतार हुआ है, उनकी सेवा करना ही हम सब देवियों के जन्म का सार (परम लाभ) है । हम सब इन्द्र की आज्ञा से आई हैं
और अब हम देवीगण आपकी अनुज्ञा प्राप्त करने के लिए उत्सुक हैं, सौभाग्य से हमारा यह मनोरथ सफल होवे ॥५॥
इत्थं भवन् कञ्चुकिना सनाथः समेत्य मातुर्निकटं तदाऽथ । प्रणम्य तां तत्पदयोः सपर्या-परो बभूवेति जगुवर्याः ॥६॥
इस प्रकार कहकर और राजा की अनुज्ञा प्राप्त कर वह देवियों का समुदाय कञ्चुकी के साथ माता के निकट जाकर और उन्हें प्रणाम कर उनके चरणों की पूजा के लिए तैयार हुआ ऐसा श्रेष्ठ पुराण पुरुष कहते हैं ॥६॥
न जातु ते दुःखदमाचरामः सदा सुखस्यैव तव स्मरामः । शुल्कं च तेऽनुग्रहमेव यामस्त्वदिङ तोऽन्यन्न मनाग वदामः ॥७॥
उन देवियों ने कहा- हम सब आपको दुःख पहुँचाने वाला कोई काम नहीं करेंगी, किन्तु आपको सुख पहुँचाने वाला ही कार्य करेंगी । हम आपसे शुल्क (भेंट या वेतन) में आपका केवल अनुग्रह ही चाहती हैं । हम लोग आपके संकेत या अभिप्राय के प्रतिकूल जरासा भी अन्य कुछ नहीं कहेंगी I७॥
दत्वा निजीयं हृदयं तु तस्यै लब्ध्वा पदं तद्धदि किञ्च शस्यैः । विनत्युपज्ञैर्वचनैर्जनन्याः सेवासु देव्यो विभवुः सुधन्याः ॥८॥
इस प्रकार विनम्रता से परिपूर्ण प्रशंसनीय वचनों से उस माता को अपना अभिप्राय कह कर और उनके हृदय में अपना स्थान जमा कर वे देवियां माता की सेवा में लग कर अपने आपको सुघन्य मानती हुई ॥८॥
प्रगे ददौ दर्पणमादरेण द्दष्टुं मुखं माजुद्दशो रयेण । रदेषु कर्तुं मृदु मञ्जनं च वक्त्रं तथा क्षालयितुं जलं च ॥९॥
उन देवियों में से किसी ने प्रात:काल माता के शयन-कक्ष से बाहिर आते ही उस सुन्दर-नयना को मुख देखने के लिए आदर के साथ दर्पण दिया, तो किसी ने शीघ्र दांतों की शुद्धि के लिए मंजन दिया और किसी अन्य देवी ने मुख को धोने के लिए जल दिया ॥९॥
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