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भावार्थ - उस रानी के नील कमल-तुल्य जो नेत्र थे, वे अब गर्भ के भार से श्वेत हो गये। सतार्हताऽभ्येत्य विधेर्विधानं यन्नाभिजातप्रकृतेस्तु मानम् । तथाऽऽप्यहो राजकुलोचितेन मृगीदशस्तत्र नतिंमुखेन ॥५॥
गर्भस्थ प्रशंसनीय तीर्थङ्करदेव के द्वारा होने वाली अवस्था विशेष के कारण उस समय नाभिजात (नीचकुलोत्पन्न नाभिमण्डल) को तो अभिमान आ गया, अर्थात् जो नाभि पहले गहरी थी, वह अब उथली हो गई । किन्तु राजकुलोचित (राजवंश के योग्य अथवा चन्द्रकुल कांति का धारक) उस मृगनयनी रानी का मुख नम्र हो गया यह आश्चर्य है ॥५॥
भावार्थ - गर्भावस्था में नाभि की गहराई तो उथली हो गई और लज्जा से रानी का मुख नीचे की ओर देखने लगा ।
गाम्भीर्यमन्तःस्थशिशौ विलोक्याचिन्त्यप्रभावं सहजं त्रिलोक्याः । ह्रियेव नाभिः स्वगभीरभावं जहावहो मञ्जुद्दशोऽथ तावत् ॥६॥
अहो ! तीनों लोकों की सहज गम्भीरता और अचिन्त्य प्रभाव गर्भस्थ शिशु में देखकर ही उस सुन्दर द्दष्टि वाली रानी की नाभि ने लज्जित हो करके ही मानों अपने गम्भीरपने को छोड़ दिया ॥
यथा तदीयोदर वृद्धिवीक्षा वक्षोजयोः श्याममुखत्वदीक्षा । मध्यस्थवृतेरपि चोन्नतत्वं कुतोऽस्तु सोढुं कठिनेषु सत्त्वम् ॥७॥
जैसे-जैसे रानी के उदर की वृद्धि होने लगी, वैसे-वैसे ही उसके कुचों के अग्रभाग (चूचुक) श्याम मुखपने की दीक्षा को प्राप्त हुए, अर्थात् वे काले होने लगे । सो यह ठीक ही है, क्योंकि कठोर स्वभाव वाले जीवों में मध्यस्थ स्वभाव वाले सज्जन पुरुष की उन्नति को सहन करने की क्षमता कहां से सम्भव है ? ॥७॥
तस्याः कृशीयानुदर प्रदेशः वलित्रयोच्छे दितया मुदे सः । बभूव भूपस्य विवेकनावः सोऽन्तस्थतीर्थेश्वरजः प्रभावः ॥८॥
उस रानी का अत्यन्त कृश वह उदर-भाग त्रिबली के उच्छेद हो जाने से उस विवेकवान् राजा के हर्ष के लिए हुआ, सो यह गर्भस्थ तीर्थङ्कर भगवान् का प्रभाव है ॥८॥
भावार्थ - जैसे कोई कृश शरीर वाला (निर्बल) व्यक्ति यदि तीन-तीन बलवानों का उच्छेद (विनाश) कर दे, तो यह हर्ष की बात होती है, उसी प्रकार रानी के उदर की त्रिबली का उच्छेद राजा के हर्ष का कारण हुआ ।
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