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रसैर्जगत्प्लावयितुं क्षणेन. सूत्कण्ठितोऽयं मुदिरस्वनेन । तनोति नृत्यं मृदु-मञ्जुलापी मृदङ्गनिःस्वानजिता कलापी ॥९॥
रसों (जलों) से जगत को एक क्षण में आप्लावित करने के लिए ही मानों मृदङ्गों की ध्वनि को जीतने वाले मेंघों के गर्जन से अति उत्कण्ठित और मृदु मञ्जुल शब्द करने वाला यह कलापी (मयूर) नृत्य किया करता है ॥९॥
भावार्थ - यह वर्षाकाल एक नाटक घर सा प्रतीत होता है, क्योंकि इस समय मेघों का गर्जन तो मृदङ्गों की ध्वनि को ग्रहण कर लेता है और उसे सुनकर प्रसन्न हो मयूर गण नृत्य करते हुए सरस सङ्गीत रूप मिष्ट बोली का विस्तार करते हैं ।
पयोधरोत्तानतया मुदे वाक् यस्या भृशं दीपितकामदेवा । नीलाम्बरा प्रावृडियं च रामा रसौघदात्री सुमनोभिरामा ॥१०॥
यह वर्षा ऋतु पयोधरों (मेघों और स्तनों) की उत्तानता अर्थात् उन्नति से, मेघ-गर्जना से तथा आनन्द-वर्धक वाणी से लोगों में कामदेव को अत्यन्त प्रदीप्त करने वाली, नील वस्त्र धारिणी, रस (जल और शृङ्गार) के पूर को बढ़ा देने वाली और सुमनों (पुष्पों तथा उत्तम मन) से अभिराम (सुन्दरी) रामा (स्त्री) के समान प्रतीत होती है ॥१०॥
भावार्थ - वर्षा ऋतु उक्त वर्णन से एक सुन्दर स्त्री सी दिखाई देती है । वसुन्धरायास्तनयान् विपद्य निर्यान्तमारात्खरकालमद्य ।
शम्पाप्रदीपैः परिणामवार्द्राग्विलोकयन्त्यम्बुमुचोऽन्तरार्द्राः ॥११॥ ___ इस वर्षा ऋतु में, वसुन्धरा के तनयों अर्थात् वृक्ष-रूप पुत्रों को जलाकर या नष्ट-भ्रष्ट करके शीघ्रता से लुप्त (छिपे) हुए ग्रीष्म काल को अन्तरङ्ग में आर्द्रता के धारक मेघ, आंसू बहाते हुए से मानों शम्पा (बिजली) रूप दीपकों के द्वारा उसे ढूंढ़ रहे हैं ॥११॥
भावार्थ : यहां कवि ने यह उत्प्रेक्षा की है कि ग्रीष्म काल वृक्षों को जलाकर कहीं छिप गया है, उसे खोजने के लिए दुःखित हुए मेघ वर्षा के बहाने आंसू बहाते हुए तथा बिजली रूप दीपकों को हाथ में लेकर उसे इधर उधर खोज रहे हैं ।
वृद्धस्य सिन्धोः रसमासु हृत्वा शापादिवास्येऽलिरुचिन्तु धृत्वा । अथैतदागोह तिनीतिसत्त्वाच्छ णत्यशेषं तमसौ तडित्वान् ॥१२।।
मेघ ने वृद्ध सिन्धु के रस (जल वा धन) को शीघ्रता से अपहरण कर लिया, अतएव उसके शाप के भय से ही मानों अपने मुख पर भ्रमर जैसी कान्ति वाली कालिमा धारण करके इस किये हुए अपराध से मुक्त होने के लिए वह अपहृत समस्त जल को वर्षा के बहाने से वापिस छोड़ रहा है ॥१२॥
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