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जो अलोलुप है, अनासक्त जीवी है, अनगार (गृह-रहित) है, अकिंचन है और गृहस्थों से अल्पित रहता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं ॥९॥
जो स्त्री-पुत्रादि के स्नेह-वर्धक पूर्व सम्बन्धों को, जाति-बिरादरी के मेल-जोल को, तथा बन्धुजनों को त्याग कर देने के बाद फिर उनमें किसी प्रकार की आसक्ति नहीं रखता और पुनः काम-भोगों में नहीं फंसता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं ॥१०॥
सिर मुंडा लेने मात्र से कोई श्रमण नहीं होता, 'ओम्' का जाप कर लेने मात्र से कोई ब्राह्मण नहीं होता, निर्जन वन में रहने
मात्र से कोई मुनि नहीं होता, और न कुशा से बने वस्त्र पहिन लेने मात्र से कोई तपस्वी ही हो सकता है ॥११॥
किन्तु समता को धारण करने से श्रमण होता है, ब्रह्मचर्य को धारण करने से ब्राह्मण होता है, ज्ञान से मुनि होता है और तपश्चरण से तपस्वी बनता है ॥१२॥
मनुष्य उत्तम कर्म करने से ही ब्राह्मण होता है, कर्म से ही क्षत्रिय होता है, कर्म से ही वैश्य होता है और शूद्र भी कर्म से ही होता है । अर्थात् वर्ण भेद जन्म से नहीं होता है, किन्तु जो मनुष्य जैसा अच्छा या बुरा कार्य करता है, वह वैसा ही ऊंच या नीच कहलाता है ॥१३॥
. इस भांति पवित्र गुणों से युक्त जो द्विजोत्तम (श्रेष्ठ ब्राह्मण) हैं, वास्तव में वे ही अपना तथा दूसरों का उद्धार कर सकने में समर्थ होते हैं ॥१४॥
भ. महावीर और महात्मा बुद्ध के द्वारा निरुपित उक्त ब्राह्मण के स्वरूप में से कुछ महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष प्रकट होते हैं । यथा
(१) जैन शास्त्रों की मान्यता है कि पंच याम (महाव्रत) का उपदेश आदि और अन्तिम तीर्थंकरों ने ही दिया है । शेष मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरों ने तो चार्तुयमि का ही उपदेश दिया है । तदनुसार भ. पार्श्वनाथ ने भी अहिंसा, सत्य, अचौर्य और अपरिग्रह इन चार यम धर्मों का उपदेश दिया था । उन्होंने स्त्री को परिग्रह मानकर अपरिग्रह महाव्रत में ही उसका अन्तर्भाव किया है । यतः जैन मान्यता के अनुसार बुद्ध ने पहिले जैन दीक्षा ली थी, (यह पहिले बतला आये हैं ।) अतः वे स्वयं भी चातुर्याम के धारक प्रारम्भ में रहे हैं । यह बात उनके द्वारा निरूपित ब्राह्मण वर्ग में भी दृष्टिगोचर होती है । ऊपर जो ब्राह्मण का स्वरूप बतलाया है, उनमें से गाथाङ्क २० में ब्राह्मण के लिए द्रव्यहिंसा का और गा. २१ में भावहिंसा का त्याग आवश्यक बतलाया है, इस प्रकार दो गाथाओं में अहिंसा महाव्रत का विधान किया गया है । इसके आगे गा. २२ में सत्य महाव्रत का गा. २३ से अचौर्य व्रत का और २४-२५ वी गाथाओं में अपरिग्रह महाव्रत का विधान है । कहने का भाव यह- कि यहां पर ब्रह्मचर्य माहव्रत का कोई उल्लेख नहीं है।
किन्तु भ. महावीर ने ब्रह्मचर्य को एक स्वतंत्र यमरूप महाव्रत कहा और पांचवें यमरूप से उसका प्रतिपादन किया। ऊपर उत्तराध्ययन की जो ब्राह्मण-स्वरूप वाली गाथाएं दी हैं उनमें यह स्पष्ट दिखाई देता है। वहां गाथाङ्क ६ में अचौर्य महाव्रत का निर्देश कर गा. ७ में ब्रह्मचर्य नाम के एक यमव्रत या महाव्रत का स्पष्ट विधान किया गया है ।
(२) उक्त निष्कर्ष से बुद्ध का पार्श्वनाथ की परम्परा में दीक्षित होना और चातुर्याम धर्म से प्रभावित रहना भी सिद्ध होता है ।
अलोलुयं मुहाजीवि अणगारं अकिंचणं । जहित्ता पुव्वसंजोगं नाइसंगे य बंधवे ।। न वि मुंडिएण समणो न ओंकारेण बंभणो । समयाए समणो होइ बंभचेरेण बंभणो । कम्मुणा बंभणो होइ कम्मुणा होइ खत्तिओ । एवं गुण-समाउत्ता जे भवंत्ति दिउत्तमा ।
असंसत्तं गिहत्थेसु तं वय बूम माहणं ९॥ जो न सज्जइ भोगेसु तं वयं बूम माहणं ॥१०॥ न मुणी रण्णवासेण कुसचीरेण ण तावसो ॥११॥ नाणेन मुणी होइ तवेण होइ तावसो ॥१२॥ वइसो कम्मुणा होइ सुद्धो इवइ कम्मुणा ॥१३॥ ते समत्था समुद्धतुं परमप्पाणमेव य ॥१४॥
(उत्तराध्ययनसूत्र, अ. १५)
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