________________
सरररररररररररररररर 19/रररररररररररररररररर
तत्रत्यनारीजनपूतपादैस्तुला रतेनि लसत्प्रसादैः ।
लुठन्ति तापादिव वारि यस्याः पद्मानि यस्मात्कठिना समस्या ॥३१॥
रति के सिर पर रहने का जिन्होंने प्रसाद (सौभाग्य) प्राप्त किया है ऐसे, वहां की नारी जनों के पवित्र चरणों के साथ तुलना (उपमा) की समता प्राप्त करना कठिन समस्या है, यही सोचकर मानों कमल सन्ताप से सन्तप्त होकर वहां की खाई के जल में लोट-पोट रहे हैं, ऐसा प्रतीत होता है । ।३१॥
भावार्थ - वहां की स्त्रियां रति से भी अधिक सौन्दर्य को धारण करती हैं, अतएव उनके सौन्दर्य को प्रकट करके के लिए किसी भी उपमा का देना एक कठिन समस्या है ।
एतस्य वै सौधपदानि पश्य सरालय त्वं कथम्र्ध्वमस्य । इतीव वप्रः प्रहसत्यजत्रं शृङ्गाग्ररत्नप्रभवद्रु चिस्त्रक् ॥३२॥
हे सरालय ! तम इस कण्डनपर के सौधपदों (भवनों) को निश्चय से देखो, फिर तम क्यों इनके ऊपर अवस्थित हो ? मानों यही कहता हुआ और अपने शिखरों के अग्र भाग पर लगे हुए रत्नों से उत्पन्न हो रही कांति रूप माला को धारण करने वाला उस नगर का कोट निरन्तर देव-भवनों की हंसी कर रहा है ॥३२॥
भावार्थ - सुरालय नाम सुर+आलय ऐसी सन्धि के अनुसार देव-भवनों का है और सुरा+आलय ऐसी सन्धि के अनुस र मदिरालय (शराब घर) का भी है । सौध-पद यह नाम सुधा (अमृत) के स्थान का भी है और चूने से बने भवनों का भी है । यहां भाव यह है कि कुण्डनपुर के सुधा-निर्मित भवन सुरालय को लक्ष्य करके कह रहे हैं कि तुम लोग मदिरा के आवास हो करके भी हमारे अर्थात् सुधाभवनों के ऊपर रहते हो, मानों इसी बहाने से शिखर पर के रत्नों की कान्ति रूप माला धारण करने वाला कोट उनकी हंसी उडा रहा है ।
सन्धूपधूमोत्थितवारिदानां शृङ्गा ग्रहे माण्डक सम्विधाना ।
आतोद्यनादैः कृतगर्जितानां शम्पेव सम्भाति जिनालयानाम् ॥३३॥
भेरी आदि वादित्रों के शब्दों से किया है गर्जन को जिन्होंने, और उत्तम धूप के जलने से उठे हुए धूम्र-पटल रूप बादलों के मध्य में जिनालयों के शिखरों के अग्रभाग पर लगे हुए सुवर्ण कलशों की कांतिरूप माला मानों शम्पा (बिजली) की भ्रान्ति को ही उत्पन्न कर रही है ॥३३॥
गत्वा प्रतोलीशिखरानलग्नेन्दुकान्त निर्यजलमापिपासुः । भीतोऽथ तत्रोल्लिखितान्मृगेन्द्रादिन्दोम॒गः प्रत्यपयात्यथाऽऽशु ॥३४॥
उन जिनालयों की प्रतोली (द्वार के ऊपरी भाग) के शिखर के अग्र भाग पर लगे चन्द्रकांत मणियों से निकलते हुए जल को पीने का इच्छुक चन्द्रमा का मृग वहां जाकर और वहां पर उल्लिखित (उत्कीर्ण, चित्रित) अपने शत्रु मृगराज (सिंह) को देखकर भयभीत हो तुरन्त ही वापिस लौट आता है ॥३४॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org