________________
COCOCC121र
ररररर हेतुवाद (तर्क शास्त्र) में ही परम ऊहपना (तर्क-वितर्क पना) था, अन्यत्र परम (महा) मोह का अभाव था । वहां अपाङ्ग यह नाम स्त्रियों के नेत्रों के कटाक्ष में ही सुना जाता था, अन्यत्र कहीं कोई अपाङ्ग (हीनाङ्ग) नहीं था । वहां छिदर का अधिकारीपना भवनों के गवाक्षों (खिड़कियों) में ही था, अन्य कोई पुरुष वहां पर-छिद्रान्वेषी नहीं था ॥३९॥
विरोधिता पञ्जर एव भाति सरोगतामेति मरालतातिः ।
दरिद्रता स्त्रीजनमध्यदेशे मालिन्यमेतस्य हि के शवेशे ॥४०॥ विरोधपना वहां पिंजरों में ही था, अर्थात् वि (पक्षी) गण पिंजरों में ही अवरुद्ध रहते थे, अन्यत्र कहीं भी लोगों में विरोध भाव नहीं था । सरोगता वहां मराल (हंस) पंक्ति में ही थी, अर्थात् हंस ही सरोवर में रहते थे और किसी में रोगीपना नहीं था । दरिद्रता वहां की स्त्रीजनों के मध्यप्रदेश (कटिभाग) में ही थी, अर्थात् उनकी कमर बहुत पतली थी, अन्यत्र कोई दरिद्र (धन-हीन) नहीं था मलिनता वहां केश-पाश में ही द्दष्टिगोचर होती थी, अन्यत्र कहीं पर भी मलिनता अर्थात् पाप-प्रवृत्ति नहीं थी ॥४०॥
स्नेह स्थितिर्दीपकवजनेषु न दीनता वारिधिवच्चा तेषु । युद्धस्थले चापगुणप्रणीतिर्येषां मताऽन्यत्र न जात्वपीति ॥४१॥
वहां दीपक के समान मनुष्यों में स्नेह की स्थिति थी । जैसे स्नेह (तैल) दीपकों में भरा रहता है, उसी प्रकार वहां के मनुष्य भी स्नेह (प्रेम) से भरे हुए थे । वहां मनुष्यों में समुद्र के समान नदीनता थी, अर्थात् जैसे समुद्र नदीन (नदी+इन) नदियों का स्वामी होता है, वैसे ही वहां के मनुष्य न दीन थे, अर्थात् दीन या गरीब नहीं थे । वहां के लोगों का चाप (धनुष) और गुण (डोरी) से प्रेम युद्धस्थल में ही माना जाता था, अन्य कहीं किसी में अपगुण (दुर्गुण) का सद्भाव नहीं था, अर्थात् सभी लोग सद्गुणी थे ॥४१॥
सौन्दर्यमेतस्य निशासु द्दष्टुं स्मयं स्वरुत्पन्नरुचोऽपकृष्टम् । विकासिनक्षत्रगणापदेशाद् द्दग देवतानामपि निर्निमेषा ॥४२॥
रात्रि में इस नगर के सौन्दर्य को देखने के लिए और इसके अद्भुत सौन्दर्य को देखकर स्वर्ग में उत्पन्न हुई लक्ष्मी के अहंकार को दूर करने के हेतु ही मानों प्रकाशमान नक्षत्र-समूह के बहाने से देवताओं की आंखें निमेष-रहित रहती हैं ॥४२॥
____ भावार्थ - वहां के नगर की शोभा स्वर्ग से भी अधिक थी, यह देखकर ही मानों देव-गण निर्निमेष (टिमकार-रहित) नेत्र वाले हो गये हैं ।
प्रासादशृङ्गाग्रनिवासिनीनां मुखेन्दुमालोक्य विधुर्जनीनाम् । नम्रीभवन्नेष ततः प्रयाति ह्रि येव सल्लब्धकलङ्क जातिः ॥४३॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org,