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करनाललनालललललल
उस नगर का बाजार एक उत्तम काव्य की तुलना को धारण कर रहा है । जैसे काव्य श्री अर्थात् शृङ्गारादि रसों की शोभा से युक्त होता है, उसी प्रकार वहां के बाजार श्रीमान् (लक्ष्मी-सम्पत्ति वाले) हैं । जैसे काव्य में असंकीर्ण (स्पष्ट) पद-विन्यास होता है, वैसे ही वहां के बाजार संकीर्णता-रहित खूब चौड़ी सड़कों वाले हैं । जैसे काव्य-गत शब्द अनेक अर्थ वाले होते हैं, वैसे ही वहां के बाजार अनेक प्रकार के पदार्थों से भरे हुए हैं । और जैसे काव्य के शब्द अपना अर्थ छल-रहित निष्कपट रूप से प्रकट करते हैं, वैसे ही वहां के बाजार में भी निष्क अर्थात् बहुमूल्य पट (वस्त्र) मिलते हैं। इस प्रकार वहां के बाजार काव्य जैसे ही प्रतीत होते हैं ॥२६॥
रात्रौ यदभ्रंलिहशालश्रृङ्ग-समङ्कितः सन् भगणोऽप्यभङ्गः । स्फुरत्प्रदीपोत्सवतानुपाति सम्वादमानन्दकरं दधाति ॥२७॥
रात्रि में जिस नगर के गगनचुम्बी शाल (कोट) के शिखरों पर आश्रित और अपना गमन भूलकर चित्राङ्कित के समान अभङ्ग (निश्चल) रूप से अवस्थित होता हुआ नक्षत्र मण्डल प्रकाशमान प्रदीपोत्सव (दीपावली) के भ्रम से लोगों में आनन्द उत्पन्न कर रहा है ॥२७॥
अधः कृतः सन्नपि नागलोकः कुतोऽस्त्वहीनाङ्गभृतामथौकः । इतीव तं जेतुमहो प्रयाति तत्खातिकाम्भश्छविदम्भजाति ॥२८॥
अध:कृत अर्थात् तिरस्कृत होने के कारण नीचे पाताल लोक में अवस्थित होता हुआ भी यह नागलोक अहीन (उच्च कुलोत्पन्न) देहधारियों का निवास स्थान कैसे बन रहा है, मानों इसी कारण उसे जीतने के लिए वह नगर खाई के जल में प्रतिबिम्बित हुई अपनी परछाई के बहाने से नीचे नागलोक को जा रहा है ॥२८॥
समुल्लसन्नीलमणिप्रभाभिः समङ्किते यद्वरणेऽथवा भीः । राहोरनेनैव रविस्तु साचि श्रयत्युदीचीमथवाऽप्यवाचीम् ॥२९॥
अत्यन्त चमकते हुए नीलमणि की प्रभाओं से व्याप्त जिस नगर के कोट पर राहु के विभ्रम से डरा हुआ सूर्य उसके ऊपर न जाकर कभी उत्तर एवम् कभी दक्षिण दिशा का आश्रय कर तिरछा गमन करता है ॥२९॥
यत्खातिकावारिणि वारणानां लसन्ति शङ्कामनुसन्दधानाः । शनैश्चरन्तः प्रतिमावतारान्निनादिनो वारिमुचोऽप्युदाराः ॥३०॥
उदार, गर्जनायुक्त एवं धीरे-धीरे जाते हुए मेघ जिस नगर की खाई के जल में प्रतिबिम्बत अपने रूप से हाथियों की शंका को उत्पन्न करते हुए शोभित होते हैं ॥३०॥
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