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crrrrrrrrrrrrrrrr 16 Crrrrrrrrrrrrrrrrr पल्लव वाले वृक्षों से अवरोध किये जाने पर तथा उसी के वंश वाली होते हुए भी अति वृद्ध जलधि रूप पति के पास जाती हैं और इस प्रकार हा-दुःख है कि वे अपने निम्नगापने का प्रतिषेध नहीं कर रही हैं, अर्थात् निम्नगा (नीचे की ओर बहना या नीच के पास जाना) इस नाम को सार्थक कर रही हैं, यह महान् दुःख की बात है ॥१७॥
भावार्थ - यदि कोई नवयौवना स्त्री अच्छे-अच्छे नवयुवक जनों के द्वारा संवरण के लिए रोके जाने पर भी किसी मूर्ख और अपने ही वंश वाले वृद्ध पुरुष को स्वीकार करे, तो उसका यह कार्य लोक में अनुचित ही गिना जायगा और सब लोग उसकी निन्दा करेंगे । इसी भाव को लक्ष्य में रख कर कवि ने नदियों के निम्नगापने को व्यक्त किया है कि नदी सदा नीचे की ओर बहती हुई और मार्ग में अनेक तरुण-स्थानीय तरुओं (वृक्षों) से रोकी जाने पर भी वृद्ध एवं जड़ समुद्र से जा मिलती है, तो उसके इस निम्नगापने पर धिक्कार है ।
वणिक्पथस्तूपितरत्नजूटा हरि-प्रियाया इव के लिकूटाः । बहिष्कृतां सन्ति तमां हसन्तस्तत्राऽऽपदं चाऽऽपदमुल्लसन्तः ॥१८॥
उस विदेह देश के नगरों के वणिक पथों (बाजारों) में दुकानों के बाहिर पद-पद पर लगाये गये स्तूपाकार रत्नों के जूट (ढेर) मानों बहिष्कृत आपदाओं का उपहास-सा करते हुए हरि-प्रिया (लक्ष्मी) के केलिकूट अर्थात् क्रीड़ा पर्वतों के समान प्रतीत होते हैं ॥१८॥
पदे पदेऽनल्पजलास्तटाका अनोकहा वा फल-पुष्पपाकाः । व्यर्थानि तावद् धनिनामिदानीं सत्रप्रपास्थापनवांछितानि ॥१९॥
जिस देश में पद-पद पर गहरे जलों से भरे हुए विशाल सरोवर और पुष्प-फलों के परिपाक वाले वृक्ष आज भी धनी जनों के सत्र (अन्न क्षेत्र) और प्रपा ( प्याऊ) स्थापन के मनोरथों को व्यर्थ कर रहे हैं ॥१९॥
विस्तारिणी कीर्तिरिवाथ यस्यामृतस्रवेन्दो रुचिवत्प्रशस्या । सुदर्शना पुण्यपरम्परा वा विभ्राजते धेनुततिः स्वभावात् ॥२०॥
उस देश की गाएं चन्द्रमा की चांदनी के समान अमृत (दूध) को वर्षा ने वाली, कीर्ति के समान उत्तरोत्तर बढ़ने वाली और पुण्य परम्परा के समान स्वभाव से ही दर्शनीय शोभित हो रही हैं ॥२०॥
अस्मिन् भुवो भाल इयदिशाले समादधच्छ्रीतिलकत्वमाले । समङ्कितं वक्ति मदीयभाषा समेहि तं कुण्डपुरं समासात् ॥२९॥
हे मित्र ! पृथ्वी के माल के समान इतनी विशाल उस देश में श्री तिलकपने को धारण करने वाले और जिसे लोग कुण्डनपुर कहते हैं, ऐसे उस नगर का अब मेरी वाणी वर्णन करती है सो सुनो ॥२१॥
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