________________
♥♥ 15
धान्यस्थली पालक - बालिकानां गीतश्रुतेर्निश्चलतां दधानाः । चित्तेऽध्वनीनस्य विलेप्यशङ्कामुत्पादयन्तीह कुरङ्गरङ्काः ॥१३॥
उस देश में धान्य के खेतों को रखाने वाली बालाओं के गीतों को सुनने से खेत खाने के लिए आये हुए दीन कुरंग (हरिण) निश्चलता को प्राप्त होकर पथिक जनों के चित्त में चित्रोल्लिखित जैसी भ्रान्ति को उत्पन्न करते हैं । अर्थात् वे खेत को चरना भूलकर गाना सुनने के लिए निश्चल हो चित्र - लिखित से प्रतीत होते हैं ॥१३॥
सम्पल्लवत्वेन हितं जनानामुत्पादयन्तो विनयं दधानाः ।
स्वजन्म वृक्षाः सफलं बुवाणा लसन्ति यस्मिन् सुपथैकशाणाः ॥१४॥
उस देश के वृक्ष विनय अर्थात् पक्षियों के निवास को, तथा नम्रता को धारण करने वाले हैं। और उत्तम हरे भरे पत्तों से युक्त किंवा सम्पदा वाले होने से आने वाले लोगों का हित सम्पादन करते हैं । अत एव सन्मार्ग को प्रकट करने वाले होकर अपने जन्म की सफलता सिद्ध करते हुए शोभायमान हो रहे हैं ||१४||
निशासु चन्द्रोपलभित्ति-निर्यज्जलप्लवा श्रीसरितां ततिर्यत् । निदाघकाले ऽप्यतिकूलमेव प्रसन्नरूपा वहतीह देव ॥१५॥
हे देव, वहां पर रात्रि में चन्द्रकान्त मणियों की भित्तियों से निकलने वाले जल से परिपूर्ण उत्तम सरिताओं की श्रेणी ग्रीष्म ऋतु में भी अतिकूल अर्थात् दोनों तटों से बाहिर पूर वाली होकर के भी प्रसन्न रूप को धारण करती हुई बहती है ॥१५ ॥
भावार्थ जब नदी वर्षा ऋतु में किनारे को उल्लघंन करके बहती है तो उसका जल गंदला होता है । किन्तु इस विदेह देश में बहने वाली नदियां अतिकूल होकर के भी प्रसन्न ( स्वच्छ ) जल वाली थी और सदा ही जल से भरी हुई प्रवाहित होती रहती थी ।
-
यदीयसम्पत्तिमनन्यभूतां भूर्वीक्षितुं विश्वहितैक पूताम् । उत्फुल्लनीलाम्बुरुहानुभावा विभाति विस्फालितलोचना वा ॥१६॥
विश्व का हित करने वाली, और अद्वितीय जिस देश की सम्पत्ति को देखने के लिये पृथ्वी खिले हुए नील कमलों के बहाने से मानों अपनी आंखों को खोलकर शोभायमान हो रही है ॥१६॥
यतो ऽतिवृद्धं जड़ धीश्वरं सा सरिततिर्याति तदेकवंशा । संपल्लवोद्यत्तरुणावरुद्धा न निम्नगात्वप्रतिबोधनुद्धा ॥ १७॥ उस देश की नदियों की पंक्ति सम्पत्ति के मद से उद्धत तरुण जनों के द्वारा, दूसरे पक्ष में उत्तम
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org