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अज्जवि विसय आलि ण पयासइ, अज्ज सकामालाव ण भासइ । अज्जजि तिय तूवें ण उ भिज्जइ, अज्ज अणंग कणिहि ण दलिज्जइ ।
णारि-कहा-रसि मणु णउ ढोवइ, णउ सवियारउ कह व पलोवइ । पत्ता
इस चिंतिवि णिवेण जिणु भणिउ, सह हि परिट्टि उ णिय भवणि । तउ पुरउ भणमि हउं पुत्त किं हा, तुहू पवियाणहि सयलु मणि ॥२५॥ किं पाह णि ण क ण णोवज्जइ, कद्दमि कमल किण्ण संपज्जइ । वप्प पुत्त को अंतरु दिज्जइ, पर इं मोहें कि पि भणिज्जइ ॥ तिहं करि जिहं कुल-संतति वडइ, तिहं करि सुरा-वंसु पवट्ट इ । तिहं करि जिहं सुय मज्झु मणोरह, हुँति य पुण्ण तियस वइ सय मह ॥
(पत्र ४१ A) महावीर युवा हो गये हैं, तथापि आज भी उनके हृदय में विषयों की अभिलाषा प्रकट नहीं हो रही है, वे आज भी काम-युक्त आलाप नहीं बोलते हैं, आज भी उनका मन स्त्रियों के कटाक्षों से नहीं भिद रहा है, आज भी कामकी कणिका उन्हें दलन नहीं कर रही है, स्त्रियों की कथाओं में उनका मन रस नहीं ले रहा है और न वे विकारी भाव से किसी स्त्री आदि की ओर देखते ही हैं । ऐसा विचार कर सिद्धार्थ राजा भ. महावीर के पास पहुंचते हैं, जहां पर कि वे अपने सखाओं से घिरे हुए बैठे थे, और उनसे कहते हैं - हे पुत्र, मैं तुम्हारे सामने अपने मन की क्या बात कहूं, तुम तो सब कुछ जानते हो । देखो- क्या पाषाणों में सुवर्ण नहीं उत्पन्न होता और क्या कीचड़ में कमल नहीं उपजता ? पिता और पुत्र में क्या अन्तर किया जा सकता है ? (कभी नहीं) फिर भी मैं मोह-वश कुछ कहता हूँ सो तुम ऐसा काम करो कि जिससे कुल-सन्तान बढ़े और पुत्र का वंश प्रवर्तमान रहे । हे इन्द्र-शत-वंद पुत्र, तुम ऐसा भाव करो कि मेरा मनोरथ पूर्ण हो । पिता के ऐसे अनुराग भरे वचनों को सुन कर अवधि-विलोचन भगवान् उत्तर देते हैं -
तं णिसुणे प्पिण अवहि-विलोयण पडि उतरु भासइ मल-मोयणु । ताय ताय जं तुम्ह पउत्तं, मण्णमि त णिरु होइ ण जुत्तं ॥ चउ गई पह व विहिय संसारं, मोख-महापह तुं धियदारं । दुत्तर दुग्गई पारावारं, कवणु ताय बहु वछइ दारं ॥ सव्वत्थ वि अयणेण विछ ण्णं, संधि बंध विसमहि विच्छिण्णं । सव्वत्थि जि कि मिउलसंपुण्ण, सव्वत्थ जि णव दारहिं जुण्णं ॥ सव्वकाल पयडिय णिरु मुत्तं, सव्वकाल वस-मंस-विलित्तं । सव्वकाल लालरस-गिल्लं, सव्वत्थ जि रुहिरोह जलुल्लं ॥ सव्वकाल बहु मल कयक बुसं, सव्वकाल धारिय जि पुरीसं । सव्वकाल बहु कुच्छि यगध, सव्वकाल अतावलिबधं ॥ सव्वकाल मह भुक्खारीण..........
............। एरिस अंग सेयंताण, होई ण मोक्खु, दुक्खु धुव ताणं ॥ पत्ता- पर संभउ पवहिय संभउ, खण-खण बाहासय-सहिउ ।
आरं भे महु र उ इंदिय-सुहु धुउ, को णरु सेवइ गुण अहिउ ॥ संसारि भमंतई जाई जाई, गिण्हियई पमेल्लिय ताई ताई । के त्तियई गणेसमि आसि वंस, णिच्च चजि जगि लद्ध संस ॥ के त्तियई भणमि कु ल-संतईउ, जण्णी-जण्णइ पिय सामिणीउ । पूरे मि मणोरह कासु कासु, त णिसु णिवि णिउ मेल्लिवि उसासु ॥ होएवि विलक्खउ मोणि थक्कु, जाए णउ पडि उत्तरु असक्कु ।
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