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सररररररररररररररररररचलन
मैं चन्द्रप्रभ भगवान् को नमस्कार करता हूँ, जिनका अंगसार (शारीरिक-प्रभा-पुञ्ज) पृथ्वी मण्डल में हर्ष-समह को बढ़ाने वाला था । चन्द्र के पक्ष में उसकी चन्द्रिका- कौमदर्थात श्वेत कमलों को विकसित करने वाली होती है । जिन चन्द्रप्रभ भगवान् के आत्मीय पद को स्वीकार कर अन्तरंग के अज्ञान अन्धकार के दूर होने से सर्व जन सुख को प्राप्त करते हैं और चन्द्र के पक्ष में उत्तम खंजन (चकोर) पक्षी चन्द्र की चांदनी में अपनी आत्मीयता को प्राप्त करता है ॥३॥
पार्श्वप्रभोः सन्निधये सदा वः समस्तु चित्ते बहुलोहभावः ।
भो भो जनाः संलभतां प्रसत्तिं धृत्वा यतः काञ्चनसंप्रवृत्तिम् ॥४॥
भो भो जनो ! तुम श्रोताओं और पानी के हृदय में पार्श्व प्रभु का निरन्तर चिन्तवन सन्निधिउत्तम निधि प्राप्त करने के लिए सहायक होवे । जिससे कि तुम्हारा मन उस अनिर्वचनीय सत्प्रवृत्ति को धारण करके प्रसन्नता को प्राप्त हो । यहां पार्श्व और लोह पद श्लेषात्मक है । जिस प्रकार पार्श्वपाषाण के योग से लोहा भी सोना बन जाता है, इसी प्रकार तुम लोग भी पार्श्व प्रभु के संस्मरण से उन जैसी ही अनिर्वचनीय शान्ति को प्राप्त होओ ॥४॥
वीर ! त्वमानन्दभुवामवीरः मीरो गुणानां जगताममीरः ।
एकोऽपि सम्पातितमामनेक-लोकाननेकान्तमतेन नेक ॥५॥ __ हे वीर भगवन् ! तुम आनन्द की भूमि होकर के भी अवीर हो और गुणों के मीर होकर के भी जगत के अमीर हो । हे नेक-भद्र ! तुम अकेले ने ही एक हो करके भी अनेकान्त मत से अनेक लोकों को (परस्पर विरोधियों को) एकता के सूत्र में सम्बद्ध कर दिया है ॥५॥
भावार्थ - श्लोक से पूर्वार्घ में विरोधालङ्कार से वर्णन किया गया है कि भगवान् तुम वीर होकर के भी अवीर-वीरता रहित हो, यह कैसे संभव हो सकता है ? इसका परिहार यह है कि तुम 'अ' अर्थात् विष्णु के समान वीर हो। दूसरे पक्ष में अबीर गुलाल जैसे होली आदि आनन्द के अवसर पर अति प्रसन्नता का उत्पादक होता है. उसी प्रकार हे वीर भगवन तम भी आनन्द उत्पन्न करने के लिए अवीर हो । मीर होकर के भी अमीर हो, इसका परिहार यह है कि आप गुणों के मीर अर्थात् समुद्र हो करके भी जगत् के अमीर अर्थात् सबसे बड़े धनाढ्य हो । मीर और अमीर ये दोनों ही शब्द फारसी के हैं । यहां यमकालङ्कार के साथ विरोधालङ्कार कवि ने प्रकट किया है । इसी पद्य के अन्त में पठित 'नेक' पद भी फारसी का है, जो कि भद्रार्थ के लिए कवि ने प्रयुक्त किया है ।
ज्ञानेन चानन्दमुपाश्रयन्तश्चरन्ति ये ब्रह्मपथे सजन्तः । तेषां गुरूणां सदनुग्रहोऽपि कवित्वशक्तौ मम विघ्नलोपी ॥६॥
जो ज्ञान के द्वारा आनन्द का आश्रय लेते हुए और ब्रह्म-पथ अर्थात् आत्म कल्याण के मार्ग में अनुरक्त होते हुए आचरण करते हैं, ऐसे ज्ञानानन्द रूप ब्रह्म-पथ के पथिक गुरुजनों का सत् अनुग्रह भी मेरी कवित्व शक्ति में विघ्नों का लोप करने वाला हो ॥६॥
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