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मैं तो काव्य रूप त्रिविष्टप (स्वर्ग) को प्राप्त होता हूँ, अर्थात् काव्य को ही स्वर्ग समझता हूँ। जैसे स्वर्ग सार रूप है और कृती जनों को इष्ट है, उसी प्रकार यह काव्य भी अलङ्कारों से युक्त है और ज्ञानियों को अभीष्ट है । स्वर्ग सुर-सार्थ अर्थात् देवों के समुदाय से रम्य होता है और यह काव्य शृङ्गार शान्त आदि सुरसों के अर्थ से रमणीक है । स्वर्ग सर्व प्रकार की विपत्ति-आपत्तियों के अभाव होने के कारण अभिगम्य होता है और यह काव्य भी विपद अर्थात् कुत्सित पदों से रहित होने से आश्रय के योग्य है । स्वर्ग कल्पवृक्षों के समूहों से सदा उल्लास-युक्त होता है और यह काव्य नाना प्रकार की कल्पनाओं की उड़ानों से उल्लासमान है । इसलिए मैं तो काव्य को ही साक्षात् स्वर्ग से बढ़कर समझता हूँ ॥२३॥
हारायतेऽथोत्तमवृत्तमुक्ता समन्तभद्राय समस्तु सूक्ता ।
या सूत्रसारानुगताधिकारा कण्ठीकृता सत्पुरुषैरुदारा ॥२४॥
यह सूक्त अर्थात् भले प्रकार कही गई कविता हार के समान आचरण करती है । जैसे हार उत्तम गोल मोतियों वाला होता है उसी प्रकार यह कविता भी उत्तम वृत्त अर्थात् छन्दों में रची गई है । हार सूत्र (डोरे)- से अनुगत होता है और यह कविता भी आगम रूप सूत्रों के सारभूत अधिकारों वाली है । हार को उदार सत्पुरुष कण्ठ में धारण करते हैं और इस उदार कविता को सत्पुरुष कण्ठस्थ करते हैं । ऐसी यह हार-स्वरुप कविता समस्त लोक के कल्याण के लिए होवे ॥२४॥
विशेषार्थ - इस पद्य में प्रयुक्त 'समन्तभद्र' पद से कवि ने यह भाव व्यक्त किया है कि उत्तम कविता तो समन्तभद्र जैसे महान् आचार्य ही कर सकते हैं । हम तो नाम मात्र के कवि हैं । इस प्रकार ग्रन्थ को प्रारम्भ करते हुए कवि ने उनके पवित्र नाम का स्मरण कर अपनी लघुता को प्रकट किया
किलाकलङ्कार्थमभिष्ट वन्ती समन्ततः कौमुदमेधयन्ती । जीयात्प्रभाचन्द्रमहोदयस्य सुमञ्जु वाङ् नस्तिमिरं निरस्य ॥२५॥
जो अकलङ्क अर्थ का प्रतिपादन करती है और संसार में सर्व ओर कौमुदी को बढ़ाती है, ऐसी प्रभाचन्द्राचार्य महोदय की सुन्दर वाणी हमारे अज्ञान-अन्धकार को दूर करके चिरकाल तक जीवे, अर्थात् जयवन्ती रहे ॥२५॥
भावार्थ - जैसे चन्द्रमा की चन्द्रिका कलङ्क-रहित होती है, कुमुदों को विकसित करती है और संसार के अन्धकार को दूर करती है, उसी प्रकार प्रभाचन्द्राचार्य के न्यायकुमुदचन्द्रादि ग्रन्थ-रूप सुन्दर वाणी अकलङ्क देव के दार्शनिक अर्थ को प्रकाशित करती है, संसार में हर्ष को बढ़ाती है और लोगों के अज्ञान को दूर करती है । वह वाणी सदा जयवन्त रहे । पद्य के प्रथम चरण में प्रयुक्त 'अकलङ्कार्थ' पद के द्वारा 'आचार्य अकलङ्कदेव' के स्मरण के साथ ही श्लेष रूप से यह अर्थ भी ध्वनित किया गया है कि कुमोदनियों को प्रसन्न करने वाली और कुलटा (व्यभिचारिणी) स्त्रियों के दुराचार को रोकने वाली चन्द्र की चन्द्रिका भी सदा बनी रहे ।
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