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योऽभ्येति मालिन्यमहो न जाने काव्ये दिने वा प्रतिभासमाने ।। दोषानुरक्तस्य खलस्य चेश ! काकारिलोकस्य च को विशेषः ॥२०॥
हे ईश ! काकारिलोक (उलूक-समूह) और खल जन में क्या विशेषता है, यह मैं नहीं जानता। अर्थात् मुझे तो दोनों समान ही द्दष्टि गोचर होते हैं, क्योंकि दिन (सूर्य) के प्रतिभासमान होने पर उलूक लोक मलिनता को प्राप्त होते हैं और दोषा (रात्रि) में अनुरक्त हैं अर्थात् रात्रि में विचरण करते हैं। इसी प्रकार उत्तम काव्य के प्रकाशमान होने पर खल जन भी मलिन-वदन हो जाते हैं और उसके दोषान्वेषण में ही तत्पर रहते हैं । इस प्रकार से मुझे तो उलूक और खल जन में समानता ही दिखती है ॥२०॥
खलस्य हन्नक्तमिवाघवस्तु प्रकाशकृ द्वासरवत्सतस्तु । काव्यं द्वयोर्मध्यमुपेत्य सायमेतज्जनानामनुरञ्जनाय ॥२१॥
खल जनों का हृदय तो रात्रि के समान अघ-स्वरूप है और सज्जनों का हृदय दिन के समान प्रकाश-रूप है। इन सज्जन और दुर्जन जनों के मध्य में प्राप्त होकर मेरा यह काव्य सांयकाल की लालिमा के समान जन-साधारण के अनुरंजन के लिए ही होगा ॥२१॥
रसायनं काव्यमिदं श्रयामः स्वयं द्रुतं मानवतां नयामः । पीयूषमीयुर्विबुधा बुधा वा नाद्याप्युपायान्त्यनिमेषभावात् ॥२२॥
हम इस काव्य रूप रसायन का आश्रय लेते हैं अर्थात् उसका पान करते हैं और रसायन-पान के फल-स्वरूप स्वयं ही हम शीघ्र मानवता को प्राप्त होते हैं । जो विबुध अर्थात् देवता हैं, वे भले ही अमृत को पीवें, या जो विगत बुद्धि होकर के भी अपने आपको विद्वान् मानते हैं, वे पीयूष अर्थात् जल को पीवें, परन्तु वे अनिमेष भाव होने से काव्य रसायन का पान नहीं कर सकते, अत: मानवता को भी प्राप्त नहीं हो सकते ॥२२॥
भावार्थ - देव अमृत-पायी और निमेष- (टिमकार) रहित लोचन वाले माने जाते हैं, अतः उनको तो काव्य रूप रसायन-पान का अवसर ही नहीं और इसलिए वे अमृत-पान करते हुए भी मनुष्यता को नहीं पा सकते । तथा जो बुद्धि-विहीन हैं ऐसे जड़ लोग भी काव्य-रसायन का पान नहीं कर सकते । अनिमेष नाम मछली का भी है और पीयूष नाम जल का भी है । मछली अनिमेष होकर के भी जल का ही पान कर सकती है, उसके काव्य-रसायन के पान की संभावना ही कहां है ? कहने का सार यह है कि मैं काव्य रूप रसायन-को पीयूष से भी श्रेष्ठ मानता हूँ क्योंकि इसके पान से साधारण भी मनुष्य सच्ची मानवता को प्राप्त कर लेता है ।।
सारं कृतीष्टं सुरसार्थरम्यं विपल्लवाभावतयाऽभिगम्यम् । समुल्लसत्कल्पलतैकतन्तु त्रिविष्ट पं काव्यमुपैम्यहन्तु ॥२३॥
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