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आज से अढ़ाई हजार वर्ष पूर्व इस भूतल पर काल का आश्रय पाकर जो धर्म और समाज की रूप-रेखा थी, उसे सर्व लोग इस आगे वर्णन किये जाने वाले लेख से जानने का प्रयत्न करें ||२९| 'यज्ञार्थमेते पशवो हि सृष्टा' इत्येवमुक्तिर्बहुशोऽपि भृष्टा । प्राचालि लोकैरभितोऽप्यशस्तैरहो रसाशिश्ववशङ्गतैस्तैः ॥३०॥
'ये सभी पशु यज्ञ के लिए विधाता ने रचे हैं', यह और इस प्रकार की बहुत सी अन्य उक्तियां रसना और शिश्न (जनन) इन्द्रिय के वशीभूत हुए उन उन अप्रशस्त वामपन्थी लोगों ने अहो, चारों ओर प्रचलित कर रखीं थी ॥३०॥
किं छाग एवं महिषः किमश्वः किं गौर्नरोऽपि स्वरसेन शश्वत् । वैश्वानरस्येन्धनतामवाप दत्ता अहिंसाविधये किलाऽऽपः ॥३१॥
क्या छाग (बकरा) क्या महिष (भैंसा ) क्या अश्व और क्या गाय, यहां तक कि मनुष्य तक भी बल-प्रयोग पूर्वक निरन्तर यज्ञाग्नि के इन्धनपने को प्राप्त हो रहे थे और धर्म की अहिंसा - विधि के लिए लोगों ने जलाञ्जलि दे दी थी ॥३१॥
धूर्तैः समाच्छादि जनस्य सा हक् वेदस्य चार्थः समवादि ताद्दक् । सर्वत्र पैशाच्यमितस्ततोऽभूदहो स्वयं रक्तमयी यतो भूः ॥३२॥
धूर्त लोगों ने वेद के वाक्यों का हिंसा-परक अर्थ कर-करके जन साधारण की आंखों को असद् अर्थ की प्ररूपणा के द्वारा आच्छादित कर दिया था और जिधर देखो उधर ही पैशाची और राक्षसी प्रवृत्तियां द्दष्टि - गोचर होती थीं। अधिक क्या कहें, उनके पैशाचिक कर्मों से यह सारी पृथिवी स्वयं रक्तमयी हो गयी थी ॥३२॥
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परोऽपकारे ऽन्यजनस्य सर्वः परोपकारः समभूत्तु खर्व : सम्माननीयत्वमवाप वर्वः किमित्यतो वच्यधिकं पुनर्वः ||३३||
मैं तुम लोगों से और अधिक क्या कहूँ- सभी लोग एक दूसरे के अपकार करने में लग रहे थे और परोपकार का तो एक दम अभाव सा ही हो गया था । तथा धूर्तजन सम्माननीय हो रहे थे अर्थात् लोगों में प्रतिष्ठा पा रहे थे ||३३||
श्मश्रूं स्वकीयां वलयन् व्यभावि लोकोऽस्य दर्पो यदभूदिहाविः । मनस्यनस्येवमनन्यताया न नाम लेशोऽपि च साधुतायाः ॥३४॥
लोगों में उस समय जाति-कुल आदि का मद इस तेजी से प्रकट हो रहा था कि वे अपने जातीय अहंकार के वशीभूत होकर अपनी मूंछों को बल देते हुए सर्वत्र दिखाई दे रहे थे । लोगों के मन में
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