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श्री 108 मुनि श्री ज्ञानसागर विरचित
श्री वीरोदय काव्य
श्रिये जिनः सोऽस्तु यदीयसेवा समस्तसंश्रोतृजनस्य मेवा । द्राक्षेव मृद्वी रसने हृदोऽपि प्रसादिनी नोऽस्तु मानक् श्रमोऽपि ॥१॥
वे जिन भगवान् हम सबके कल्याण के लिये हों, जिनकी कि चरण-सेवा समस्त श्रोता जनों को और मेरे लिए मेवा के तुल्य है । तथा जिनकी सेवा द्राक्षा (दाख) के समान आस्वादन में मिष्ट एवं मृदु हैं और हृदयको प्रसन्न करने वाली है । अतएव उनकी चरण-सेवा के प्रसाद से इस काव्यरचना में मेरा जरा-सा भी श्रम नहीं होगा । अर्थात् श्री जिनदेव की सेवा से मैं इस आरम्भ किये जाने वाले काव्य की सहज में ही रचना सम्पन्न कर सकूँगा ॥१॥
कामारिता कामितसिद्धये नः समर्थिता येन महोदयेन ।
सैवाभिजातोऽपि च नाभिजातः समाजमान्यो वृषभोऽभिधातः ॥२॥ जिस महोदय ने कामारिता-काम का विनाश-हमारे वांछित सिद्धि के लिए समर्थन किया है, वे अभिजात-उत्कृष्ट कुलोत्पन्न होकर के भी नाभिजात-नाभिसूनु हैं और समाज-मान्य होकर के भी संज्ञा से वृषभ हैं ॥२॥
भावार्थ - इस श्लोक में विरोधालङ्कार से कथन किया गया है कि जो अभिजात अर्थात् कुलीन है, वह नाभिजात-अकुलीन कैसे हो सकता है ? इसका परिहार किया गया है कि वे वृषभदेव उत्तम कुल में उत्पन्न होकर के भी नाभि नामक चौदहवें कुलकर से उत्पन्न हुए हैं । इसी प्रकार जो वृषभ (बैल) है, वह समाज (मनुष्य-समुदाय) में मान्य कैसे हो सकता है ? इसका परिहार यह है कि वे आदि तीर्थंकर वृष अर्थात् धर्म के भरण-पोषण करने वाले होने से वृषभ कहलाते थे और इसी कारण समस्त मानव-समाज में मान्य थे ।
चन्द्रप्रभं नौमि यदङ्गसारस्तं कौमुदस्तोममुरीचकार । सुखञ्जनः संलभते प्रणश्यत्तमस्तयाऽऽत्मीयपदं समस्य ॥३॥
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