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61 इस प्रकार समग्र चरित्र-चित्रण पर सिंहावलोकन करने से यह बात पूर्व-परम्परा से कुछ विरुद्ध-सी दिखती है कि भ. महावीर के द्वारा सभी तत्त्वों का विस्तृत उपदेश दिये जाने पर गौतम के दीक्षा लेने का इसमें उल्लेख किया गया है, जब धवला-जयधवलाकार जैसे आचार्य समयशरण में पहुंचते ही उनके दीक्षित होने का उल्लेख करते हैं । पर इसमें विरोध की कोई बात नहीं है बल्कि सुसंगत ही कथन है । कारण कि इन्द्र ने विप्र वेष में जिस श्लोक का अर्थ गौतम से पूछा था, उसे वे नहीं जानते थे, अत: यह कह कर ही वे भगवान् के पास आये थे कि चलो- तुम्हारे गुरु के सामने ही अर्थ बताऊंगा । सकलकीर्ति ने इन्द्र-द्वारा जो श्लोक कहलाया, वह इस प्रकार है
त्रैकाल्यं द्रव्यषटकं सकलगणितगणाः सत्पदार्था नवैव, विश्वं पंचास्तिकाय-व्रत-समितिविदः सप्त तत्त्वानि धर्मः । सिद्धेः मार्गस्वरूपं विधिजनितफलं जीवषट्कायलेश्या,
एतान् य श्रद्धाति जिनवचनरतो मुक्तिगामी स भव्य ॥ इस श्लोक में जिस क्रम से जिस तत्त्व का उल्लेख है, उसी क्रम से गौतम ने भगवान् से प्रश्न पूछे थे और भगवान् के द्वारा उनका समुचित समाधान होने पर पीछे उनका दीक्षित होना भी स्वाभाविक एवं युक्ति-संगत है ।
रयधु-विरचित महावीर-चरित रयघू कवि ने अपभ्रंश भाषा में अनेक ग्रन्थों की रचना की है । उनका समय विक्रम की १५ वीं शताब्दि है। यद्यपि अपने पूर्व रचे गये महावीर चरितों के आधार पर ही उन्होंने अपने चरित की रचना की है, तथापि उनके विशिष्ट व्यक्तित्व का उनकी रचना में स्थान-स्थान पर प्रभाव दृष्टिगोचर होता है । यहाँ पर उनके चरित से कुछ विशिष्ट स्थलों के उद्धरण दिये जाते हैं(१) भ. ऋषभदेव के द्वारा अपने अन्तिम तीर्थङ्कर होने की बात सुनकर मरीचि विचारता है
घत्ता-णिसुणिवि जिणवुत्तउ मुणिवि णिरुत्तउ, संतुट्ठ उ मरीइ समणी । जिण-भणिओ ण वियलइ, कहमवि ण चलइ, हं होसमि तित्थय जणी ॥१५॥ जहिं ठाणहु वियलइ कणयायलु, जइ जोइस गणु छं डइ णह यलु । जइ सत्तच्चिसिहा हुइ सीयल, जइ पण्णय हवंति गय बिस-मल ।। एयह कह मवि पुणु चल चित्तउ, णउ अण्णारिसु जिणहं पउत्तउ । किं कारणिं इंदियगणु सोसमि, किं कारणिं उववासें सोसमि ।। किं कारणिं उड्डड्डउ अच्छमि, किं कारणि जय तू उण पेच्छ मि । किं कारणिं लुचंमि सिर-के सइ, किं कारणिं छुह-तणह किलेसई ।। किं कारणिं णग्गउ जणि वियरमि, किं विणु जलिण भहाणइ पइरमि । जेण कालि भवियत्थु हवेसइ, तेण समइं तं सइ णिरु होसइ । जिहं रवि उयउं ण कोवि णिवार इ, अणुंहुतउ णउ के णवि कीरइ । जिंह फल कालवसेणं पक्व हिं, णिय कालहु परि पुण्णइ थक्क हिं ॥ तेम जीउ पुणु सई सिज्झेसइ, मृदु णिरत्थउ देहु किले सइ । इय भासिवि समवसरणहु बाहिरि, णिग्गउ जडु खणि छंडे प्पिणु हिरि ।। जणि अणाय पक्खिविहि दंसिय, कुमयपसर बहु भेएं भासिय । पत्ता-णवि कम्मह कत्त णवि पुणु भुत्त, णउ कम्मे हि जि छिप्पइ ।। णिच्चु जि परमप्पउ अत्थि अदप्पउ, एम संखु मउ थप्पइ ॥१६।।
(पत्र१७)
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