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58 ततोऽयं नृसुरादीनां बभूव गुरुरुर्जितः ।
नापरो जातु देवस्य गुरुर्वाऽध्यापकोऽस्त्यहो ।।१५।। आठ वर्ष के होने पर महावीर ने स्वयं ही श्रावक के व्रत ग्रहण कर लिये । महावीर के क्रीड़ा-काल में संगमक देव के द्वारा सर्परुप बनकर आने और भगवान् के निर्भयपने को देखकर 'महावीर' नाम रखकर स्तुति करके जाने का भी उल्लेख है।
इस स्थल पर ग्रन्थकार ने भगवान् के शरीर में प्रकट हुए १०८ लक्षणों के भी नाम गिनायें हैं । पुनः कुमारकालीन क्रीड़ाओं का वर्णन कर बताया गया है कि भगवान् का हृदय जगत् की स्थिति को देख-देखकर उत्तरोत्तर वैराग्य की ओर बढ़ने लगा और अन्त में तीस वर्ष की भरी-पूरी युवावस्था में वे घर-परित्याग को उद्यत हो गये । यहां माता-पिता के विवाह-प्रस्ताव आदि की कोई चर्चा नहीं है।
ग्यारवें अध्याय में १३५ श्लोकों के द्वारा बारह भावनाओं का विशद वर्णन किया गया है, इनका चिन्तवन करते हुए महावीर का वैराग्य और दृढ़तर हो गया ।
बराहवें अध्याय में बताया गया है कि महावीर के संसार, देह और भोगों से विरक्त होने की बात को जानते ही लौकान्तिक देव आये और स्तवन-नमस्कार करके भगवान् के वैराग्य का समर्थन कर अपने स्थान को चले गये । तभी घण्टा आदि के बजने से भगवान् को विरक्त जानकर सभी सुर और असुर अपने-अपने वाहनों पर चढ़कर कुण्डनपुर आये
और भगवान् के दीक्षा कल्याणक करने के लिए आवश्यक तैयारी करने लगे । इस समय भगवान् ने वैराग्य उत्पादक मधुरसंभाषण से अपने दीक्षा लेने का भाव माता, पिता और कुटुम्बी जनों को अवगत कराया । इस अवसर पर लिखा है
तदा स मातरं स्वस्य महामोहात्मानसाम् । बन्धूंश्च पितरं दक्षं महाकष्टेन तीर्थकृत् ॥४१॥ विविक्तैर्मधुरालापैरुपदेशशतादिभिः ।
वैराग्यजनकैाक्यैः स्वदीक्षायै ह्यबोधयत् ॥४२॥ इधर तो भगवान् ने घर-बार छोड़कर देव-समूह के साथ वन को गमन किया और उधर माता प्रियकारिणी पुत्रनियोग से पीड़ित होकर रोती-विलाप करती हुई वन की ओर भागी । इस स्थल पर कवि ने माता के करुण विलाप .: जो चित्र खींचा है, उसे पढ़ कर प्रत्येक माता रोये बिना नहीं रहेगी । माता का ऐसा करुण आक्रन्दन सुन कर महत्तर देवों ने किसी प्रकार समझा बुझा करके उन्हें राज-भवन वापिस भेजा ।
भगवान् ने नगर के बाहिर पहुँच कर खंका नामक उद्यान में पूर्व से ही देवों द्वारा तैयार किये गये मण्डप में प्रवेश किया और वस्त्राभूषण उतार कर, पांच मुट्टियों के द्वारा सर्व केशों को उखाड़ कर एवं सिद्धों को नमस्कार करके जिन-दीक्षा ग्रहण कर ली । देव-इन्द्रादिक अपना-अपना नियोग पूरा करके यथा-स्थान चले गये ।
भगवान के दीक्षा ग्रहण कर लेने पर इन्द्र ने जिन सुसंस्कृत प्राञ्जल शब्दों में उनकी स्तुति की है, वह उसके ही योग्य है । कवि ने पूरे ३२ श्लोकों में इस का व्याज-स्तुति रूप से वर्णन किया है ।
तेरहवें अध्याय में भगवान् की तपस्या का, उनके प्रथम पारणा का, ग्रामानुग्राम विहार का और सदा काल जागरुक रहने का बड़ा ही मार्मिक एवं विस्तृत वर्णन किया है । इस प्रकार विचरते हुए भगवान् उज्जयिनी के श्मशान में पहुंचे। यथा
विश्वोत्तरगुणैः सार्धं सर्वान् मूलगुणान् सुधीः । अतन्द्रितो नयन्नैव स्वप्रेऽपि मलसन्निधिम् ॥५८॥ इत्यादिपरमाचाराऽलङ्कृतो विहरन् महीम् ।
उज्जयिन्याः श्मशानं देवोऽतिमुक्ताख्यमागमत् ॥५९॥ वहां पहुँच कर भगवान् रात्रि में प्रतिमायोग धारण करके ध्यानावस्थित हो गये । तात्कालिक अन्तिम रुद्र को ज्यों ही इसका पता चला - कि वह ध्यान से विचलि.। करने के लिए अपनी प्रिया के साथ जा पहुंचा और उसने जो नाना प्रकार के उपद्रव रात्रि भर किये, वह यद्यपि वर्णनातीत हैं, तथापि सकल कीर्ति ने उनका बहुत कुछ वर्णन १५
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