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उस उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि भ. महावीर ने अपने छद्मस्थ जीवन के इन १२ वर्ष ६ मास और १५ दिन के तपश्चरण काल में केवल ३५० दिन ही भोजन किया और शेष दिनों में उन्होंने निर्जल ही उपवास किये
भ. महावीर के छद्यस्थकाल के तपश्चरण और उपसर्ग आदि का उक्त वर्णन श्वे. आगमों के आधार पर दिया है । इससे पाठक जान सकेंगे कि साढ़े बारह वर्ष के लम्बे समय में कैसे-कैसे उपसर्ग और कष्ट भ. महावीर को सहन करना पड़े थे । दि. जैन पुराणों में एक और उपसर्ग का वर्णन मिलता है । वह इस प्रकार है
एक समय भगवान् विहार करते हुए उज्जयिनी नगरी पहुँचे और वहां के अतिमुक्तक नामक स्मशान भूमि में रात्रि के समय प्रतिमा योग धारण करके खड़े हो गये । अपनी स्त्री के साथ घूमता हुआ भव नामक रुद्र वहां आया और भगवान् को ध्यानस्थ देखकर आग-बबूला हो गया । उसने रात भर अनेक प्रकार के उपसर्ग किये, भयावने रूप बना कर भगवान् को डराना चाहा, उन्हें ध्यान से विचलित करने के लिए अप्सराओं का नृत्य दिखाया गया । इस प्रकार सारी रात्रि भर उपद्रव करने पर भी जब भगवान् विचलित नहीं हुए और सुमेरुवत् अडोल-अकम्प बने रहे, तब वह भी भगवान् के चरणों में नत-मस्तक हो गया । उसने अपने दुष्कृत्यों के लिए भगवान् से क्षमा मांगी, नाना प्रकार के स्तोत्रों से उनका गुण-गान किया और 'अतिवीर या महति महावीर' कहकर उनके नाम का जयघोष किया ।
भगवान् के चार नामों की चर्चा पहिले कर आये हैं । यह भगवान् का पांचवां नाम रखा गया। इस प्रकार भगवान् के ५ नाम तभी से प्रचलित हैं- वीर, श्रीवर्धमान, महावीर, अतिवीर या महति महावीर और सन्मति । प्रसिद्ध दार्शनिक विद्वान् श्री सिद्ध सेनाचार्य को 'सन्मति' यह नाम बहुत प्रिय रहा और इसी से उन्होंने अपने दार्शनिक ग्रन्थ का नाम ही सन्मति सूत्र रखा । स्वामी समन्तभद्र और अकलंकदेव ने श्री वर्धमान नाम से ही भगवान् की स्तुति की है । वीर और महावीर नाम से तो सर्व साधारण जन भली भांति परिचित ही हैं।
भ. महावीर के केवल ज्ञान की उत्पत्ति और गणधर-समागम
वैशाख शुक्ला दशमी के दिन भ. महावीर को जंभिय ग्राम के बाहिर ऋजुवालुका नदी के उत्तर तटपर श्यामाक नामक किसान के खेत वर्ती शालवृक्ष के नीचे चौथे पहर में केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ । उस समय इन्द्र का आसन कम्पायमान
१ जो अ तवो अणुचिनो वीर-वरेणं महाणुभावेणं । छउमत्थ-कालियाए अहक्कम कित्तइस्सामि ॥१॥
नव किर चाउम्मासे छ क्किर दो मासिए ओवासी अ। बारस य मासियाई वावत्तरि अद्धमासाई ॥२॥ इक्कं किर छम्मासं दो किर तेमासिए उवासी अ । अढाइज्जाई दुवे दो चे वर दिवड्डमासाई ॥३॥ भद्द च महाभदं पडिमं तत्तो अ सव्वओ भदं । दो चत्तारि दसेव य दिवसे ठासी यमणुबद्धं ॥४॥ गोअरमभिग्गहजुअं खमणं छम्मासियं च कासी अ । पंच दिवसेहिं ऊणं अव्वहिओ वच्छनयरीए ॥५॥ दस दो किर महप्पा ठाइ मुणी एगराइयं पडिमं । अट्ठम-भत्तेण जई इक्कक्कं चरमराई अं ॥६॥ दो चेव य च्छट्ठसए अउणातीसे उ वासिओ भयवं । न कयाइ निच्चभत्तं चउत्थभत्तं च से आसि ।।७।। वारस वासे अहिए छटुं भत्तं जहन्नयं आसि । सव्वं च तवोकर्म अपाणयं आसि वीरस्स ॥८॥ तिनि सए दिवसाणं अठणापन्ने य पारणाकालो ॥ उक्कुडुअ निसिज्जाए ठिय पडिमाणे सए बहुए ॥९॥ पव्वज्जाए दिवसं पढ़मं इत्थं तु पक्खिवित्ता णं । संकलियम्मि उ संते जं लद्धं तं निसामेह ॥१०॥ बारस चेव य वासा मासा छच्चेव अद्धमासो य ।। वीर-वरस्स भगवओ एसो छउमत्थ-परियाओ ॥११॥
(आवश्यक - नियुक्ति पृ. १००-१०१) २. किरात-सैन्यरूपाणि पापोपार्जन-पण्डितः ।
विद्या-प्रभावसम्भावितोपसर्गर्भयावहै: ॥३३५॥ स्वयं स्खलयितुं चेतः समाधेरसमर्थक ।
स महति-महावीराख्यां कृत्वा विविधाः स्तुती:॥३३६॥ उमया सममाख्याय नर्तित्वागादमत्सर) ॥३३७ पूर्वार्ध।
(उत्तरपुराण, पर्व ७४)
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