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भी असमंजस में पड़कर उससे बोले-चल, तेरे गुरु के ही सामने इसका अर्थ बताऊंगा । यह कह कर इन्द्रभूति उस छद्मरूप-धारी शिष्य के साथ भ. महावीर के पास पहुँचे । भगवान् ने आते ही उनका नाम लेकर कहा- 'अहा इन्द्रभूति तुम्हारो हृदय में जो यह शंका है कि जीव है, या नहीं ? सो जो ऐसा विचार कर रहा है, निश्चय से वही जीव है, उसका सर्वथा अभाव न कभी हुआ है और न होगा । 'भगवान् के द्वारा अपनी मनोगत शंका का उल्लेख और उसका समाधान सुनकर इन्द्रभूति ने भक्ति से विह्वल होकर तत्काल उनका शिष्यत्व स्वीकार कर लिया और दीक्षा लेकर दिगम्बर साधु बन गये । गौतम इन्द्रभूति का निमित्त पाकर इस प्रकार ६६ दिन के बाद श्रावण-कृष्णा प्रतिपदा को भगवान् का प्रथम धर्मोपदेश हुआ ।
वीरसेनाचार्य ने जयधवला टीका में इस विषय पर कुछ रोचक प्रकाश डाला है, जो इस प्रकार हैशंका-केवल ज्ञानोत्पत्ति के बाद ६६ दिन तक दिव्यध्वनि क्यों प्रकट नहीं हुई ? समाधान-गणधर के अभाव से । शंका-सौधर्म इन्द्र ने तत्काल ही गणधर को क्यों नहीं ढूंढा ? समाधान-काल-लब्धि के बिना असहाय देवेन्द्र भी गणधर को ढूंढने में असमर्थ रहा ।
शंका- अपने पादमूल में आकर महाव्रतों को स्वीकार करने वाले पुरुष को छोड़कर अन्य के निमित्त से दिव्यध्वनि क्यों नहीं प्रवृत होती हैं ।
समाधान- ऐसा ही स्वभाव है और स्वभाव में प्रश्न नहीं किया जा सकता है, अन्यथा फिर कोई व्यवस्था ही नहीं बन सकेगी ।
गुण भद्राचार्य ने भी अपने उत्तर पुराण में यह उल्लेख किया है कि गौतम-द्वारा जीव के अस्तित्व के विषय में प्रश्न किये जाने पर भगवान् का उपदेश प्रारम्भ हुआ ।
इन्द्र ने ब्राह्मण वेष में जाकर जिस गाथा का अर्थ गौतम से पूछा था, उसमें निर्दिष्ट तत्त्वों के क्रम से भगवान् की वाणी प्रकट हुई । सर्व प्रथम सब द्रव्यों के लक्षण-स्वरूप “उवज्जेइ वा विगमेइ वा धुवेइ वा" (प्रत्येक वस्तु प्रति समय नवीन पर्याय रूप से उत्पन्न होती है, पूर्व पर्याय रूप से विनष्ट होती है और अपने मूल स्वभाव रूप से ध्रुव रहती है ।) यह मातृका-पद दिव्यध्वनि से प्रकट हुआ। पुनः "जीवो उवओगमओ अमुत्ति कत्ता सदेहपरिमाणो । भोत्ता संसारत्थो सिद्धो सो विस्ससोड्डगईं" (जीव ज्ञान-दर्शनरूप उपयोगमय है, अमूर्त है, कर्मों का कर्ता और भोक्ता है, स्वदेहपरिमाण है, संसारी रूप भी है और सिद्ध-स्वरूप भी है, तथा स्वभाव से ऊर्ध्वगति-स्वभावी है ।) ये सप्त तत्त्व नव पदार्थ-सूचक बीज पद प्रकट हुए । इसी प्रकार गाथोक्त गति, लेश्या आदि के प्रतिपादक बीजपद दिव्यध्वनि से प्रकट हुए । इन मातृका या बीज पदों को सुनते ही गौतम एवं उनके अन्य साथी विद्वानों की समस्त शंकाओं का समाधान हो गया । तभी उन सब ने भगवान् से जिन-दीक्षा ग्रहण कर ली । भ. महावीर के दिव्य सान्निध्य से गौतम के श्रुत ज्ञानावरण कर्म का विशिष्ट क्षयोपशम प्रकट हुआ और वे द्वादशाङ्ग श्रुत के वेत्ता हो गये । उसी दिन अपराह्न में उन्होंने भगवान् की वाणी का द्वादशाङ्ग रूप से विभाजन किया ।
१. वासस्स पढममासे सावणणामम्मि बहुल पडिवाए ।
अभिजीणक्खत्तम्मि य उप्पत्ती धम्मतित्थस्स ॥(तिलोयप., १६८) केवलणाणे समुप्पण्णे वि दिव्वज्झुणीए किमटुं तत्थापउत्ती ? गणिंदाभावादो । सोहम्मिंदेण तक्खणे चेव गणिंदो किरण ढोइदो ? ण, काललद्धीए विणा असहेजस्स, देविंदस्स तड्ढोयण सत्तीए अभावादो । सगपादमूलम्मि पडिवण्णमहव्वयं मोत्तूणण अण्णमुद्दिसिय दिव्यज्झुणी किण्ण पयट्टदे ? साहावियादो। ण च सहाओ परपज्जणिओगारहो, अव्ववत्थापत्तीदो । (कसाय. पुस्तक १. पृ. ७६) अस्ति किं नास्ति वा जीवस्तत्स्वरूपं निरुप्यताम् ।। इत्यप्राक्षमतो मह्यं भगवान् भक्तवत्सलः ॥३६०॥ (उ. पु. प. ७४)
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