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आदि के चार तीर्थंकरों का बाल-ब्रह्मचारी रहना बतलाया गया हो । वास्तव में ये दोनों ही गाथाएं पांचों ही तीर्थङ्करों के बाल-ब्रह्मचारी और कुमार-दीक्षितपने का ही प्रतिपादन करती हैं । किन्तु पीछे से जब महावीर के विवाह की बात स्वीकार कर ली गई, तो उक्त गाथा-पठित 'इत्थियाभिसेया' पाठ को 'इच्छियाभिसेया' मानकर 'ईप्सिताभिषेकाः' अर्थ किया जाने लगा।
श्री कल्याण विजयजी अपने द्वारा लिखित 'श्रमण भगवान् महावीर' नामक पुस्तक में महावीर के विवाह के बारे में संदिग्ध हैं । उन्होंने लिखा है कि- "कल्पसूत्र के पूर्ववर्ती किसी सूत्र में महावीर के गृहस्थाश्रम का अथवा उनकी भार्या यशोदा का वर्णन हमारे दृष्टिगोचर नहीं हुआ । (श्रमण भगवान् महावीर, पृ. १२) दूसरे एक बात खास तौर से विचारणीय है कि जब महावीर घर त्याग कर दीक्षित होने के लिए चले, तो श्वे. शास्त्रों में कहीं भी तो यशोदा के साथ महावीर के मिलने और संसार के छोड़ने की बात का उल्लेख होना चाहिए था । नेमिनाथ के प्रव्रजित हो जाने पर राजुल के दीक्षित होने का जैसा उल्लेख मिलता है, वैसा उल्लेख यशोदा के दीक्षित होने या न होने आदि का कहीं पर भी दृष्टिगोचर नहीं होता । इसके विपरीत दि. ग्रन्थों में स्पष्ट उल्लेख है कि महावीर के द्वारा विवाह-प्रस्ताव अस्वीकार कर दिये जाने पर यशोदा और उसके पिता को बहुत आघात पहुंचा और वे दोनों ही दीक्षित होकर तप करने चले गये । जितारि तो कलिंग (वर्तमान उड़ीसा) देश-स्थित उदयगिरि पर्वत से मुक्ति को प्राप्त हुए और यशोदा जिस पर्वत पर दीर्घकाल तक तपस्या करके स्वर्ग को गई, वह पर्वत ही कुमारी पर्वत' के नाम से प्रसिद्ध हुआ । खारवेल के शिलालेख में इस कुमारी पर्वत का उल्लेख है।
सन्मति-नाम विजय और संजय नामक दो चारण मुनियों को किसी सूक्ष्मतत्त्व के विषय में कोई सन्देह उत्पन्न हो गया, पर उसका समाधान नहीं हो रहा था । भ. महावीर के जन्म के कुछ दिन बाद ही वे उनके समीप आये कि दूर से ही उनके दर्शन मात्र से उनका सन्देह दूर हो गया और वे उनका 'सन्मति देव' नाम रखते हुए चले गये ।
भ. महावीर का छद्मस्थ या तपस्या-काल भ. महावीर ने तीस वर्ष की अवस्था में मार्गशीर्ष १० के दिन जिन-दीक्षा ली और उग्र तपश्चरण में संलग्न हो गये । दि. ग्रन्थों उनके इस जीवन-काल की घटनाओं का बहुत कम उल्लेख पाया जाता है । किन्तु श्वे, ग्रन्थों में इस १२ वर्ष के छद्मस्थ और तपश्चरण काल का विस्तृत विवरण मिलता है । यहां पर उपयोगी जानकर उसे दिया जाता है।
प्रथम वर्ष
भ. महावीर ने ज्ञातृखण्डवन में दीक्षा लेने के बाद आगे को विहार किया । एक मुहूर्त दिन के शेष रहने पर वे कार गांव जा पहुंचे और कायोत्सर्ग धारण कर ध्यान में संलग्न हो गये । इसी समय कोई ग्वाला जंगल से अपने
१ तेरसमे च वसे सुपवत विजय चके कुमारी पवते अरहयते...।
(खारवेल शिलालेख पंक्ति १४)
२. सञ्जयस्यार्थ-सन्देहे सजाते विजयस्य च । जन्मानन्तरमेवेनमभ्येत्यालोकमात्रतः ॥२८२॥ तत्सन्देहे गते ताम्या चारणाभ्यां स्वभक्तितः । अस्त्वेष सन्मतिर्देवो भावीति समुदाहृतः ॥२८३॥
(उत्तर पुराण, पर्व ७४)
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