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बैलों को लेकर घर लौट रहा था । वह उन्हें चरने के लिए भ. महावीर के पास छोड़ कर गायें दुहने के लिए घर चला गया । बैल घास चरते हुए जंगल में दूर निकल गये । ग्वाला ने घर से वापिस आकर देखा कि मैं जहां बैल छोड़ गया था, वे वहां नहीं है, तब उसने भगवान् से पूछा कि मेरे बैल कहां गये ? जब भगवान् की ओर से कोई उत्तर नहीं मिला, तो वह समझा कि इन्हें मालूम नहीं है, अतः उन्हें ढूंढने के लिए जंगल की ओर चल दिया । रात भर वह ढूंढता रहा, पर बैल उसे नहीं मिले । प्रात:काल लौटने पर उसने बैलों को भगवान् के पास बैठा हुआ पाया। ग्वाला ने क्रोधित होकर कहा - बैलों की जानकारी होते हुए भी आपने मुझे नहीं बतलाया? और यह कह कर हाथ में ली हुई रस्सी से उन्हें मारने को झपटा । तभी किसी भद्र पुरुष ने आकर ग्वाले को रोका कि अरे, यह क्या कर रहा है ? क्या तुझे मालूम नहीं, कि कल ही जिन्होंने दीक्षा ली है ये वे ही सिद्धार्थ राजा के पुत्र महावीर है, यह सुन कर ग्वाला नत-मस्तक होकर चला गया।
दूसरे दिन महावीर ने कार ग्राम से विहार किया और कोल्लागसन्निवेश पहुँचे । वहां पारणा करके वे मोराकसन्निवेश की ओर चल दिये । मार्ग में उन्हें एक तापसाश्रम मिला । उसके कुलपति ने उनसे ठहरने और अग्रिम वर्षावास करने की प्रार्थना की । भगवान् उसकी बात को सुनते हुए आगे चल दिये । इस प्रकार अनेक नगर, ग्राम और वनादिक में लगभग ७ मास परिभ्रमण के पश्चात वर्षाकाल प्रारम्भ हो गया । जब महावीर ने अस्थिग्राम में चातुर्मास बिताने के लिए ग्राम के बाहरी अवस्थित शूलपाणि यक्ष के मन्दिर में ठहरने का विचार किया, उन लोगों ने कहा- यहां रहने वाला यक्ष महा दुष्ट है, जो कोई भी भूला भटका इस मन्दिर में आ ठहरता है उसे यह यक्ष मार डालता है। यह सुनकर भी महावीर ठहर गये और कायोत्सर्ग धारण करके ध्यान में तल्लीन हो गये । महावीर को अपने मन्दिर में ठहरा हुआ देख कर यक्ष ने रात भर नाना प्रकार के रूप बना-बनाकर असह्य असंख्य यातनाएं दी, पर महावीर पर उनका कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा । अन्त में हताश हो कर वह भगवान् के चरणों में पड़ गया, अपने दुष्कृत्य के लिए क्षमा मांगी और उनके गुण-गान करके अन्तर्हित हो गया । कहा जाता है कि उपसर्ग को दूर होने पर भ. महावीर को रात्रि के अन्तिम मुहूर्त में कुछ क्षणों के लिए नींद आई और तभी उन्होंने कुछ स्वप्न भी देखे । इसके पश्चात् तो वे सारे जीवन भर जागृत ही रहे और पूरे छद्मस्थकाल के १२ वर्षों में एक क्षण भी नहीं सोये ।*
अपने इस प्रथम चातुर्मास में भगवान् ने २५-१५ दिन के आठ अर्धमासी. उपवास किये और पारणा के लिए केवल आठ बार उठे ।
कहा जाता है कि भगवान् महावीर अपर नाम वर्धमान के द्वारा इस असह्य उपसर्ग को जीतने और शूलपाणि यक्ष का सदा के लिए शान्त हो जाने के कारण ही अस्थि-ग्राम का नाम 'वर्धमान नगर' रख दिया गया, जो कि आज 'वर्दवान' नाम से पश्चिमी बंगाल का एक प्रसिद्ध नगर है ।
द्वितीय वर्ष
प्रथम चातुर्मास समाप्त करके महावीर ने अस्थिग्राम से विहार किया और मोराक सनिवेश पहुँचे । वहां कुछ दिन ठहर कर वाचाला की ओर विहार किया । आगे बढ़ने पर लोगों ने उनसे कहा-'आर्य, यह मार्ग ठीक नहीं है, इसमें
* छउमत्थोवि परक्कममाणो छउमत्थकाले विरहंतेणं भगवता जयंतेण ध्रुवंतेणं परक्कमंतेणं ण कयाइ पमाओ कओ। अविसद्दा णवरं एक्कस्सिं एक्को अंतोमुहत्तं अट्टियगामे सयमेव अभिसमागाए ।
(आचारंग चूर्णि, रतलाम प्रति, पत्र ३२४) तत्र च तत्कृतां कदर्थनां सहमानः प्रतिमास्थ एव स्वल्पं निद्राणो भगवान् दश स्वप्नानवलोक्य जजागार। (कल्पसूत्रार्थप्रबोधिनी टीका पृ. १३७)
किन्तु भगवती सूत्र के अनुसार उक्त १० स्वप्न भ. महावीर ने छद्मस्थकाल के अन्तिम रात्रि में, अर्थात् केवलोत्पत्ति के पूर्व देखे । यथा
समणे भगवं महावीरे छउमत्थकालियाए अंतिमराइयंसि इमे दस महासुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धे । (भगवती सूत्र. शतक १६ उद्देशक ६, सू. १६)
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