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कुमाराक-सनिवेश से चलकर भगवान् चोराक सनिवेश गये । यहां के पहरेदार चोरों के भय से बड़े सतर्क रहते थे और वे किसी अपरिचित व्यक्ति को गांव में नहीं आने देते थे । जब भगवान् गांव में पहुंचे तो पहरेदारों ने भगवान् से उनका परिचय पूछा । किन्तु भगवान् ने कोई उत्तर नहीं दिया । पहरेदारों ने उन्हें गुप्तचर समझ कर पकड़ लिया और बहुत सताया । जब सोमा और जयन्ती नामक परिब्राजिकाओं से भगवान् का परिचय मिला, तब उन्होंने उन्हें छोड़ा और अपने दुष्कृत्य के लिए क्षमा मांगी ।
चोराक से भगवान् ने पृष्ठचम्पा की ओर विहार किया और यहीं पर चौथा चातुर्मास व्यतीत किया। इस चतुर्मास में भगवान् ने पूरे चार मास का उपवास रखा और अनेक योगासनों से तपस्या करते रहे । चातुर्मास समाप्त होते ही नगर के बाहिर पारणा करके भगवान् ने कयंगला सन्निवेश की ओर विहार किया ।
पांचवां वर्ष
कंयगला में भ. महावीर ने नगर के बाहिरी भाग के एक उद्यान में बने देवालय में निवास किया। वे उसके एक कोने में कायोत्सर्ग कर ध्यान-मग्न हो गये । उस दिन देवालय में रात्रि-जागरण करते हुए कोई धार्मिक उत्सव मनाया जाने वाला था, अतः रात्रि प्रारम्भ होते ही नगर से स्त्री और पुरुष एकत्रित होने लगे। गाने-बजाने के साथ ही धीरे-धीरे स्त्री और पुरुष मिलकर नाचने लगे। गोशाला को यह सब कुछ अच्छा नहीं लगा और वह उन लोगों की निंदा करने लगा । अपनी निंदा सुनकर गांव वालों ने उसे मन्दिर से बाहिर निकाल दिया । वह रात भर बाहिर ठंड में ठिठुरता रहा ।
प्रातः काल होने पर भगवान् ने वहां से श्रावस्ती की ओर विहार कर दिया । गोचरी का समय होने पर गोशाला ने नगर में चलने को कहा । गोचरी में यहां एक ऐसी घटना घटी कि जिससे गोशाला को विश्वास हो गया कि 'होनहार दुर्निवार है।'
श्रावस्ती से भगवान् हल्लिय गांव की ओर गये । वे नगर के बाहिर एक वृक्ष के नीचे ध्यान-स्थित हो गये। रात में वहां कुछ यात्री ठहरे और ठंड से बचने के लिए उन्होंने आग जलाई । प्रातः काल होने के पूर्व ही यात्री लोग तो चल दिये, पर आग बढ़ती हुई भगवान् के पास जा पहुंची, जिससे उनके पैर झुलस गये । भगवान् ने यह वेदना शान्ति-पूर्वक सहन की और आग के बुझ जाने पर उन्होंने नगला गांव की ओर विहार किया । वहां गांव के बाहिर भगवान् तो वासुदेव के मन्दिर में ध्यान-स्थित हो गये, किन्तु वहां खेलने वाले लड़कों को गोशाला ने आंख दिखाकर डरा दिया । लड़के गिरते पड़ते घर को भागे और उनके अभिभावकों ने आकर गोशाला को खूब पीटा ।।
नंगला से विहार कर भगवान् आवर्त गांव पहुंचे और वहां नगर से बाहिर बने बलदेव के मन्दिर में रात भर ध्यानस्थित रहे । दूसरे दिन वहां से चलकर चोराक-सन्निवेश पहुँचे और वहां भी वे नगर से बाहिर ही किसी एकान्त स्थान में ध्यान-स्थित रहे । पर गोशाला गोचरी के लिए नगर की ओर चला और लोगों से उसे गुप्तचर समझकर पकड़ लिया और खूब पीटा ।
चोराक-सनिवेश से भगवान जब कलंबका-सन्निवेश की ओर जा रहे थे तो मार्ग में सीमा-रक्षकों ने उनसे पूछा कि तुम लोग कौन हो ? उत्तर ने मिलने पर दोनों को पीटा गया और पकड़ कर वहां के स्वामी के पास भेज दिया गया । उसने भगवान् को पहिचान लिया और उन्हें मुक्त कर अपनी भूल के लिए क्षमा मांगी । यहां से भगवान् ने लाढ़ देश की ओर विहार किया । वहां उन्हें ठहरने योग्य स्थान भी नहीं मिलता था, अत:
ली-पथरीली विषम भूमि पर ठहरना पड़ता था । वहां के लोग भगवान् को मारते और उन पर कुत्ते छोड़ देते थे । वहां आहार भी जब कभी कई-कई दिनों के बाद रुखा-सूखा मिलता था पर भगवान् ने उस देश में परिभ्रमण करते हुए इन सब कष्टों को बड़ी शान्ति से सहन किया । जब भगवान् वहां से लौट रहे थे, तब सीमा पर मिले हुए दो चोरों ने उन्हें बड़ा कष्ट पहुंचाया।
वहां से आकर भगवान् ने भद्दिया नगरी में पांचवा चातुर्मास किया । यहां पूरे चार मास का उपवास अंगीकार कर विविध आसनों से ध्यान-स्थित रहे और आत्म-चिन्तन करते रहे । चातुर्मास समाप्त होते ही नगर के बाहिर पारणा करके भगवान ने कदली समागम की ओर विहार किया ।
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