________________
31
हो गया । उसकी यह दृढ़ धारणा हो गई कि जो कुछ जिस समय होने वाला है, वह उस समय होकर के ही रहेगा। चातुमांस पूर्ण होते ही महावीर ने नालन्दा से विहार किया और कोल्लाग सन्निवेश पहुँचे। नालंदा से भगवान् ने जब विहार किया, तब गोशाला भिक्षा लेने के लिए गया हुआ था । वापिस आने पर जब उसे महावीर के विहार कर जाने का पता चला तो वह भी ढूंढते ढूंढते कोल्लाग सनिवेश जा पहुँचा । इसके पश्चात् वह लगातार छह चातुर्मासों तक भगवान् के साथ रहा ।
2
तीसरा वर्ष
कोल्लाग - सन्निवेश से भगवान् ने सुवर्णखल की ओर विहार किया । मार्ग में उन्हें कुछ ग्वाले मिले, जो मिट्टी की एक हांडी में खीर पका रहे थे। गोशाला ने भगवान् से कहा- जरा ठहरिये इस खीर को खाकर फिर आगे चलेंगे। भगवान् ने कहा- यह खीर पकेगी ही नहीं बीच में ही हांडी फूट जायगी और सब खीर नीचे लुढ़क जायगी । वह कहकर भगवान् तो आगे चल दिये । किन्तु खीर खाने के लोभ से गोशाला वहीं ठहर गया । हांडी दूध से भरी हुई थी और उसमें चावल भी अधिक डाल दिये गये थे। अतः जब चावल फूले तो हांडी फट गई और सब खीर नीचे लुढ़क गई । ग्वालों की आशा पर पानी फिर गया और गोशाला अपना मुख नीचा किये हुए वहां से चल दिया । अब उसकी यह धारणा और भी दृढ़ हो गई कि 'जो कुछ होने वाला है, वह अन्यथा नहीं हो सकता ।'
कोल्लाग सन्निवेश से बिहार करते हुए भगवान् ब्राह्मण गांव पहुंचे। यहां पर भगवान् की पारणा तो निरन्तराय हुई। किन्तु गोशाला को गोचरी में बासा भात मिला, जिसे लेने से उसने इनकार कर दिया और देने वाली स्त्री से बोला- तुम्हें बासा भात देते लज्जा नहीं आती। यह कह कर और शाप देकर बिना ही भिक्षा लिए वह वापिस लौट आया ।
ब्राह्मण गांव से भगवान् चम्पा नगरी गए और तीसरा चातुर्मास यहीं पर व्यतीत किया। इसमें भगवान् ने दोदो मास के उपवास किये ।
चौथा वर्ष
चम्पानगरी से भगवान् ने कालायस सन्निवेश की ओर विहार किया। वहां पहुँच कर उन्होंने एक खंडहर में ध्यानावस्थित होकर रात्रि बिताई । एकान्त समझ कर गांव के मुखिया का व्यभिचारी पुत्र किसी दासी को लेकर वहां व्यभिचार करने के लिए आया और व्यभिचार करके वापिस जाने लगा, तो गोशाला ने स्त्री का हाथ पकड़ लिया । यह देखकर उस मनुष्य ने गोशाला की खूब पिटाई की। दूसरे दिन भगवान् ने प्रस्थान किया और पत्रकालय पहुँचे । भगवान् वहां किसी एकान्त स्थान में ध्यानारुढ़ हो गये। दुर्भाग्य से पूर्व दिन जैसी घटना यहां भी घटी और यहां पर भी गोशाला पीटा
गया ।
पत्रकालय से भगवान् ने कुमाराक सन्निवेश की ओर विहार किया। वहां पर चम्पक रमणीय उद्यान में पाश्वस्थ साधुओं को देखा, जो वस्त्र और पात्रादिक रखे हुए थे। गोशाला ने पूछा- आप किस प्रकार के साधु हैं ? उन्होंने उत्तर दिया- हम निर्ग्रन्थ हैं । गोशाला ने कहा- आप कैसे निर्ग्रन्थ हैं, जो इतना परिग्रह रख करके भी अपने आपको निर्ग्रन्थ बतलाते हैं। ज्ञात होता है कि अपनी आजीविका चलाने के लिए आप लोगों ने ढोंग रच रखा है। सच्चे निर्ग्रन्थ तो हमारे धर्माचार्य हैं, जिनके पास एक भी वस्त्र और पात्र नहीं है और वे ही त्याग और तब तपस्या की साक्षात् मूर्ति है।' इस प्रकार उन सग्रन्थी साधुओं की भर्त्सना करके गोशाला वापिस भगवान् के पास आ गया और उनसे सर्व वृत्तान्त कहा ।
१. गोशाला का श्वे. शास्त्रोल्लिखित यह कथन सिद्ध करता है कि म. महावीर वस्त्र और पात्रों रे रहित पूर्ण निर्व्रन्थ थे।
-सम्पादक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org