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asमाणचरिउ
अन्य किसी एक दिन उसने दर्पण में अपना मुख देखते हुए कर्णमूलमें केशोंमें छिपा हुआ एक नवपलित केश देखा ( ७ ) । उस पलित केशको देखकर राजा प्रियदत्त सोचने लगा कि "मुझे छोड़कर ऐसा कौन बुद्धिमान् होगा, जो विषम विषयोंमें इस प्रकार उलझा रहता है। सुरेन्द्रों, नरेन्द्रों एवं विद्याधरों द्वारा समर्पित तथा प्राणियों के भव अत्यन्त प्रिय लगनेवाले भोज्य पदार्थोंसे भी मुझ जैसे चक्रवर्तीका चित्त सन्तुष्ट नहीं होता, तब वहाँ सामान्य व्यक्तियोंका तो कहना ही क्या ? यथार्थ सुखके निमित्त न तो परिजन ही हैं और न मन्त्रिगण ही । ऐन्द्रजालिक मोहमें पड़कर मैं अपना ही अनर्थ कर रहा हूँ । अतः मेरे जीवनको धिक्कार है। ( ८ ) ।" यह कहकर उसने अपनेको धिक्कारा और शीघ्र ही मुनिराज क्षेमंकरके पास जाकर उसने उनका धर्मोपदेश सुनकर अपने अरिजय नामक पुत्रको राज्य देकर १६ हजार नरेशोंके साथ दीक्षा धारण कर ली ( ९-१० ) । चक्रवर्ती प्रियदत्तने घोर तपस्या की और फलस्वरूप वह मरकर सहस्रार स्वर्ग में सूरिप्रभ नामका देव हुआ । ( यह प्रसंग पिछले २1७ से सम्बन्ध रखता है और पाठक कहीं भ्रममें नहीं पड़ जाये, इसलिए लेखकने उनका स्मरण दिलाते हुए यहाँ यह कहा है- "वही कमल - पत्रके समान नेत्रवाले तथा नन्दन इस नाम से प्रसिद्ध राजाके रूपमें तुम यहाँ अवतरित हुए हो ।" ( २२६ से प्रारम्भ होनेवाली राजा नन्दनकी भवावलि ८|११ पर समाप्त ) ( ११-१२ ) । इस प्रकार मुनिराजका उपदेश सुनकर वह नन्दन नृप भी संशय छोड़कर मुनि बन गया ( १३ ) ।
मुनिराज नन्दन एकान्तमें कठोर तपश्चर्या करने लगे। उन्होंने द्वादश प्रकारके तपोंको तपकर रत्नत्रयकी आराधना की तथा षडावश्यक विधिका मनमें स्मरण कर शंकादिक दोषोंका परिहरण करनेमें अपनी वृत्ति लगायी ( १४ ) । घोर तपश्चर्याके बाद राजा नन्दनने पाँच समितियों, तीन गुप्तियों एवं अन्य अनेक गुणोंसे युक्त होकर मनको चंचल प्रवृत्तियों को रोक दिया । उसने अपने शरीरके प्रति निष्पृह स्वभाव होकर कर्मरूपी शत्रुको नष्ट कर दिया ( १५-१६ ) । इस प्रकार घोर तपश्चर्यापूर्वक प्राण त्याग किये और वह प्राणत-स्वर्ग के पुष्पोत्तर - विमानमें इन्द्र हुआ ( १७ ) । [ आठवीं सन्धि ]
प्रस्तुत 'वड्डमाणचरिउ' को प्रथम आठ सन्धियों में भगवान् महावीरके विविध भवान्तरोंका वर्णन कर कवि ९वीं सन्धिमें ग्रन्थके प्रमुख नायक वर्द्धमानका वर्णन करता है। उसके अनुसार भारतवर्ष के पूर्व में विदेह नामका एक देश था, जिसकी राजधानी कुण्डपुर थी । उस नगरीके राजा सिद्धार्थ थे। उनकी महारानीका नाम प्रियकारिणी था ( १-४ ) ।
उधर प्राणत-स्वर्ग स्थित राजा नन्दनका वह जीव- इन्द्र अपनी सारी आयु समाप्त कर चुका और जब उसकी आयु केवल ६ माह की शेष रह गयी, तब इन्द्रकी आज्ञासे पुष्पमूला, चूलावती, नवमालिका, नतशिरा, पुष्पप्रभा, कनकचित्रा, कनकदेवी एवं वारुणीदेवी नामकी ८ दिक्कुमारियाँ महारानी प्रियकारिणी की सेवामें आयीं और उन्होंने प्रियकारिणीको प्रणाम कर सेवा करनेकी आज्ञा माँगी । इन्द्रकी आज्ञासे कुबेर साढ़े तीन करोड़ श्रेष्ठ मणिगणोंसे युक्त निधि-कलश हाथमें लेकर गगनरूपी आँगनसे कुण्डपुर में उस समय तक मणियों को बरसाता रहा, जबतक कि ६ माह पूरे न हो गये । इधर प्रियकारिणीने एक दिन रात्रिके अन्तिम प्रहर में मनके लिए अत्यन्त सुखद एवं उत्तम १६ स्वप्नोंको देखा । उसने सवेरे उठते ही उन स्वप्नोंको महाराज सिद्धार्थकी सेवा में निवेदन कर उनका फल पूछा ( ५-६ ) । महाराज सिद्धार्थने जब त्रिशलाको १६ स्वप्नों का फल सुनाते हुए यह बताया कि उनकी कोखसे शीघ्र ही एक तीर्थंकर-पुत्र जन्म लेगा, तो वह फूली न समायी । इधर जब उस देवराज इन्द्रके छठे महीनेका अन्तिम दिन पूरा हुआ, तभी -- प्रियकारिणीको पुनः एक स्वप्न आया जिसमें उसने एक शुभ्र गज अपने मुखमें प्रवेश करते हुए देखा । वह प्राणत देव प्रियकारिणी के गर्भ में आया । उस उपलक्ष्य में कुबेर ९ मास तक निरन्तर रत्नवृष्टि करता रहा । गर्भिणी माँकी सेवा हेतु श्री, ह्री, धृति, लक्ष्मी, सुकृति और मति नामकी देवियाँ सेवा हेतु पधारों और निरन्तर उस माता की सेवा करती रहीं ( ७-८ ) । तेजस्वी बालकके गर्भ में आते ही रानी त्रिशला अत्यन्त कृश - काय हो गयी । उसने ग्रहोंके उच्चस्थलमें
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