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१०.२३. १५] हिन्दी अनुवाद
२५३ (प्रथम नरक पृथिवीकी मोटाई एक लाख अस्सी हजार योजन है) दूसरी नरक पृथिवी की मोटाई बत्तीस हजार योजन तथा तीसरी नरक-पृथिवीकी मोटाई २८ हजार योजन जानना चाहिए। चौथी नरक-पृथिवीकी मोटाई चौबीस हजार योजन तथा ऋषियों द्वारा पाँचवीं नरकपृथिवीको मोटाई २० हजार योजन कही गयी है। छठवीं नरक-पृथिवीकी मोटाई ८ दूनी अर्थात् २० सोलह हजार योजन प्रमाण कही गयी है तथा सातवीं नरक-पृथिवीका प्रमाण आठ हजार योजन जानो।
___घत्ता-हे सुरेन्द्र, आयाममें असंख्यात प्रमाण (नारकियोंकी) आयु सुनो। जैसा कि कामारिजित जिनेन्द्रने एक-एक नरक-पृथिवीकी आयु कही है ।।२१५।।
२३ प्रमुख नरकभूमियाँ और वहाँके निवासी नारकी जीवोंकी दिनचर्या एवं जीवन
पहली रत्नप्रभा, दूसरी शर्कराप्रभा, तीसरी बालुकाप्रभा, चौथी पंकप्रभा, पाँचवीं धूमप्रभा अन्य निश्चित रूपसे छठवीं तमप्रभा एवं सातवीं महातमप्रभा नामकी नरकभूमियाँ कही गयी हैं। ये समस्त नरकभूमियाँ प्रवर दुखोंसे व्याप्त तथा तिमिरसमूह एवं विवरोंसे भरी हुई होती हैं। उन सातों पृथिवियों में विवरो की संख्या क्रमशः (प्रथम नरकमें-) तीस लाख, ( दूसरे नरकमें-) पचीस लाख, ( तीसरे नरकमें-) पन्द्रह लाख, (चौथे नरकमें-) दस लाख, ( पाँचवें- ५ नरकमें-) तीन लाख, (छठवें नरकमें-) पाँचकम एक लाख, एवं ( सातवें नरकमें-) केवल पाँच ही बिल जानो। कृष्ण, नील एवं कापोत लेश्याओ के वशीभूत होकर वे नारकी जीव उन विवरोंमें दुख भोगते रहते हैं।
वहाँ वे ( विक्रिया ऋद्धिवश ) मृगाधीश एवं मातंगके रूपों को दरशाकर प्रत्यक्ष होते हैं, मानों वे स्वयं ही उस रूपवालो के निजी दूत हो।।
नारकी प्राणी जब जन्म लेकर वहाँ भूमिपर पहुँचते हैं, तब वे नीचे मुख लम्बे अंगवाले होते हैं तथा वहाँ आकर इच्छित महाभयंकर रणरंगमें संगत हो जाते हैं। उनका शरीर बड़ा ही दुर्गन्धिपूर्ण होता है। वहाँ दुर्गम तमाल वृक्ष होते हैं, जो लोहेके बने हुए कीलों व काँटों जैसे भयानक होते हैं। मनुष्य एवं तिथंच भयानक पापो के कारण उन नरको में जन्म लेते हैं। मुख्य रूपसे वे एकाएक हुण्डक संस्थान ही ग्रहण करते हैं।
१५ वहाँ मिथ्याविभंगावधि नामका ज्ञान होता है, ऐसा जिनमतमें विचक्षणो ने अपने अवधिज्ञानसे मनमें ( स्वयं ) देखा है।
अंगारों के संघातसे स्याहीके समान काली दन्तपंक्तिको उखाड़ फेंककर वे परस्परमें सन्त्रास उत्पन्न करते हैं।
कुटिल भालतलपर भौहें चढ़ाकर कभी-कभी तो केश-समूह उखाड़ डालते हैं और मारो- २० मारो कहकर आकाश को भर देते हैं । जिस-जिस विधिसे वे अपने पूर्वभव को जानते हैं उसी-उसी विधिसे वे अपने पूर्वस्थानों का स्मरण करते हैं।
धत्ता- रोषसे लाल नेत्रवाले वे नीचा मुख कर तलवारके समान पत्तो वाले वनमें गिरा दिये जाते हैं। और मारो-मारो कहते हुए नित्य ही दारुण युद्ध में जूझते रहते हैं ॥२१६।।
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