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१०.३८.९] हिन्दी अनुवाद
२७३ घत्ता-अशुभ भावोंसे अशुभ होता है और शुभभावोंसे शुभ । सिद्धपद किसी भी प्रकार वणित नहीं किया जा सकता। गतभव-मुक्त जीव एक ( अर्थात् कर्ममुक्त) होता है, उसे वीतराग जिन मानकर अनेक बार नमस्कार करो ॥२२९।।
गुणस्थानारोहण क्रम प्रथम तीन गुणस्थानोंको छोड़कर चौथे अविरति-गुणस्थानपर चढ़कर वहाँ वह जीव सात प्रकृतियों ( चार अनन्तानुबन्धी एवं तीन मिथ्यात्वादि ) का नाश करता है। फिर पाँचवाँ एवं छठवां गुणस्थान छोड़कर अनुक्रमसे सातवें गुणस्थानको प्राप्त करता है। वहाँ भी वह तीन प्रकृतियोंको तोड़कर पुनः आठवाँ अपूर्वकरण गुणस्थान प्राप्त कर नौवाँ अनिवृत्तिकरण गुणस्थान निश्चय ही प्राप्त कर वहाँ छत्तीस प्रकृतियोंका नाश करता है। पुनः वह बिना रुके सूक्ष्मराग ५ नामक दसवें गणस्थानमें पहुँचता है। वहाँ वह एक प्रकृतिका नाश कर तत्काल ही अशान्त मोह नामक ग्यारहवें गुणस्थानमें चढ़कर बारहवें क्षीणमोहमें पहुँचता है। वहाँ वह सोलह कर्मप्रकृतियोंका क्षय करता है तब वह तेरहवें सयोगी जिन गुणस्थानमें आरूढ़ होता है और निर्मल केवलज्ञान उत्पन्न कर समस्त लोकालोकको देखकर पुनः चौदहवाँ अयोगिजिन नामक गुणस्थानको प्राप्त करता है।
वहाँ द्विचरम समयमें वह बहत्तर प्रकृतियोंको और चरम समयमें तेरह प्रकृतियोंको नाश करता है ऐसा जिनाधिपने कहा है। इस प्रकार इन एक सौ अड़तालीस कर्म प्रकृतियोंको जीतकर तथा मनुष्य शरीरका त्याग कर वह परमात्म स्वभावको पाता है और इन तीनों लोकोंके शिखरको लाँघकर निर्वाण स्थानको प्राप्त करता है । वह जीव संसारमें होनेवाले दुखसे छूट जाता है।
पत्ता-वे जीव द्रव्य ज्ञान घनमय होते हैं, शोक एवं रोगसे रहित होते हैं, तथा अष्टमभूमि- १५ में स्थित रहते हैं, ऐसा जिनेन्द्र ने अपने ज्ञानसे देखा है ॥२३०।।
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सिद्ध जीवोंका वर्णन सिद्ध जीव सादि और अनादिके भेदसे दो प्रकारके कहे गये हैं (जो वर्तमान सिद्ध हैं वे सादि और जो परम्परासे, चिरकालसे चले आये हैं वे अनादि सिद्ध हैं ) तथा वे अनन्तानन्त गुणो के आश्रित होते हैं, अन्तिम शरीरके प्रमाणसे वे किंचिद् ऊन रहते हैं तथा सम्यक्त्वादि अष्टगुणो से अन्यून-पूर्ण रहते हैं। पुनः मरकर वे दुखरूपी मगरमच्छो से रौद्र संसार रूपी समुद्र में नहीं गिरते। वे क्रोध, लोभ, मद और मोहरूपी अन्तरंग शत्रुओ से रहित तथा कामकी ५ बाणाग्निको जीत लेनेवाले होते हैं। बचपन, बुढ़ापा, तारुण्यता तथा स्वाभाविक सन्तापसे वे कभी भी स्पर्शित नहीं होते। वे कषाय रहित, विषाद रहित, निष्कर्म, निर्भय, निरीह, निरायुध तथा निमंद रहते हैं। वे न तो भट होते हैं और न कायर ही। वे न जड़ होते हैं न कुक्षर होते हैं, न प्रभु होते हैं, न सेवक होते हैं और न मत्सर-द्वेष करनेवाले होते हैं। वे न सूक्ष्म हैं, न स्थूल, न चंचल और न स्थावर ही। वे न तो दयाभाव रहित हैं और न दयापर ही। वे न ऋजु होते हैं १० और न कुटिल ही। वे आडम्बर रहित, निरुपम, निरहंकार एवं निरम्बर-वस्त्र रहित होते हैं।
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