Book Title: Vaddhmanchariu
Author(s): Vibuha Sirihar, Rajaram Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 374
________________ १०. ३६. १९ ] हिन्दी अनुवाद २७१ (प्राणी) चार प्रकारके हैं । चतुर्गतिके भेदसे वे पृथक्-पृथक् कहे गये हैं । वे अनन्तानन्त हैं । इन्द्रियोंकी अपेक्षा वे पाँच प्रकारके हैं जो स्वयंमें रमण करनेवाले व प्यारे हैं । कायकी अपेक्षासे संसारी प्राणी छह प्रकारके जानो तथा सुनो कि प्राणोंकी अपेक्षासे संसारी जीव दस प्रकार के होते हैं । वेदोंकी अपेक्षा संसारी जीव स्त्रीलिंग आदिके भेदसे तीन प्रकारके १५ होते हैं, जो कि अधीरतापूर्वक रतिमें पड़े रहते हैं । जिनेन्द्र के द्वारा कथित सोलह प्रकारकी कषायोंकी अपेक्षा संसारी जीव सोलह प्रकारके तथा ज्ञानकी अपेक्षासे आठ प्रकारके जानो । संयमकी अपेक्षा संसारी जीव सात प्रकारके तथा दर्शनकी अपेक्षा चार प्रकारके जानो । लेश्याओंकी अपेक्षा संसारी जीव छह प्रकार तथा भव्यत्वगुणकी अपेक्षा दो प्रकार मानो। सम्यक्त्वकी अपेक्षा छह प्रकार तथा सप्ततत्त्वोंकी अपेक्षा सात २० प्रकार और द्रव्योंकी अपेक्षा छह प्रकारके जानो । घत्ता - जिनेन्द्र भट्टारकने आहारसे जिस-जिस प्रकारके आहारक कहे हैं, वे वे प्रकार संसारी जीवोंके जानो । वे समस्त संसारी जीव चार गतियोंमें व्याप्त हैं। अधिक विस्तार करनेसे क्या प्रयोजन ? ॥२२८|| .३६ जीवों गुणस्थानों का वर्णन जो केवली, केवली-समुद्घातके द्वारा कर्मरूपी अन्धकारका नाश करते हैं तथा अन्य जो विग्रहगति (जन्म-समय मोड़ा लेनेवाली गति ) को प्राप्त तथा परमात्म पदको प्राप्त, नष्ट विकल्पवाले अरहन्त, अयोगी जिन तथा शुद्ध, प्रबुद्ध एवं सिद्ध हैं, वे आहार ग्रहण करते नहीं देखे गये । शेष समस्त संसारी जीवोंको आहारक कहा गया है । इस प्रकार रत्नोंकी संख्या - (१४) विधिसे चौदह मार्गणास्थानों का वर्णन किया गया। अब गुणस्थानोंका वर्णन सुनो-उनकी संख्या भी उतनी ही अर्थात् १४ ( चौदह ) है । हे पौलोमीप्रिय इन्द्र, निश्चल चित्तसे प्रयत्न पूर्वक यह सुनो। ५ पहला मिथ्यात्व गुणस्थान, दूसरा सासादन गुणस्थान तथा तीसरा मिश्र (सम्यग्मिथ्यात्व ) गुणस्थान कहा गया है। चौथा अविरत सम्यग्दृष्टि, पाँचवाँ देशविरत, छठा प्रमत्तविरत, सातवाँ अप्रमत्तविरत गुणस्थान निश्चयपूर्वक जानो । पुनः आठवाँ अपूर्वकरण एवं नौवाँ अनिवृत्तिकरण गुणस्थान कहा गया है । दसवाँ सूक्ष्मराग ( सूक्ष्मसाम्पराय ) जानना चाहिए । ग्यारहवाँ उपशान्त १० मोह तथा बारहवाँ क्षीणकषाय और उसके बाद तेरहवाँ आगममें विख्यात सयोगीजिन तथा चौदहवाँ आनन्दजनक परमसुखके आलयस्वरूप अयोगी जिन होते हैं । नारकी एवं रतिभावको प्रकाशित करनेवाले देव चार गुणस्थानोंके धारी होते हैं । तिर्यंचोंके पाँच गुणस्थान होते हैं । किन्तु मनुष्य समस्त गुणस्थानोंको प्राप्त करते हैं । इस प्रकार गुणस्थानोंकी विशेषता कही गयी । कर्मसे मथित होकर ही यह जीव अपावन शरीर धारण करता है । कर्म-फलसे ही वह १५ अहिंसा - विधान द्वारा प्रभावशाली बनता है । कर्मफल द्वारा ही वह दर्शन-ज्ञान से युक्त होकर महान् बनता है अथवा अतिमहान् या सामान्य- उत्तम बनता है । यह जीव मन-वचन-काय रूप त्रिकरण बुद्धिके कारण कर्म-वैभवको धारण करता । जिस प्रकार अग्निके साथ अग्निज्वाला परिणमनको प्राप्त होती है, त्रिलोक त्रिलोकाधिप द्वारा जाना जाता है, उसी प्रकार कर्म भी पुद्गल परिणमनको प्राप्त होते हैं । जीवका स्वभाव निरुक्त अकाम रूप रागादि रहित है । जीवके द्वारा संग्रहीत 1 किये गये भाव चेतन भावों द्वारा निश्चय ही परिणमनको प्राप्त होते हैं, जिस प्रकार ईन्धन अग्नि • भावसे परिणमनको प्राप्त होता है वैसे ही कर्मरूपी ईन्धन कर्मभावसे परिणम जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only २० www.jainelibrary.org

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