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१०.४१.९]
हिन्दी अनुवाद
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भगवान् महावीरका कार्तिक कृष्ण चतुर्दशीको रात्रिके अन्तिम पहरमें
पावापुरीमें परिनिर्वाण उन वीर प्रभुके ( संघमें ) ग्यारह सुप्रसिद्ध गणधर हुए । उन सबमें इन्द्रभूति गौतम सर्व प्रथम धुरन्धर थे। हर्ष राग रहित-गम्भीर तीन सौ पूर्वधर थे। नौ हजार नौ सौ शिक्षक (-चारित्रकी शिक्षा देनेवाले ) थे, तेरह सौ अवधिज्ञानी मुनिवर तथा पांच सौ मनःपर्ययज्ञानी दिगम्बर मुनि थे। केवलज्ञानी मुनि तत्त्वशत संख्या अर्थात् सात सौ थे। विक्रिया ऋद्धिधारी मुनि नौ सौ तथा वादि गजेन्द्र ( वाद ऋद्धिके धारक ) मुनियोंकी संख्या चार सौ थी। इस ५ प्रकार कुल चौदह सहस्र ( एवं ग्यारह ) मुनि वीर प्रभुके संघमें थे।
हर्ष राग रहित चन्दना प्रमुख छत्तीस सहस्र आर्यिकाओंकी संख्या थी। एक लाख श्रावक कहे गये हैं तथा तीन लाख श्राविकाओंकी गणना थी। देव-देवांगनाएं असंख्यात थीं। सुन्दर मनवाले ( परस्पर विरोध रहित गाय, सिंह आदि) तिथंच संख्यात थे। इन सभीके साथ जिनाधिपने बिहार किया तथा ३० वर्षों तक अपने उपदेशोंसे भव्यजनोंके अज्ञानरूपी अन्धकारको १० दूर करते हुए वे वीरप्रभु अपने सात प्रकारके संघ सहित पावापुरीके श्रेष्ठ उद्यान में पहुंचे।
पावापुरीके उस उद्यानमें कायोत्सर्ग विधानसे ठहरकर शेष अघातिया कर्मोको घातकर कार्तिक मासके कृष्ण पक्षकी चतुर्दशीको रात्रिके चौथे पहरके अन्तमें वे त्रिलोकाधिप परमेश्वर वीर-जिनेश्वर निर्वाण स्थलको पहँचे।।
उस अवसरपर आनन्दित मनवाले देवगण अपने आसनके काँपनेसे वीर प्रभुका निर्वाण १५ 'जानकर वहाँ आये। उन्होंने गुरुभक्ति पूर्वक पूजा की, मति-शक्ति पूर्वक स्तुति की। पुनः उन्होंने उन जिनेन्द्रके पार्थिव शरीरको पुष्पोंसे सुसज्जित किया और अग्निकुमार जातिके देवोंने अपने सिरके अग्रभागमें स्थित अग्निसे उनका दाह-संस्कार किया।
__ पत्ता-सभी देवगण अपने-अपने आवासोंको यह कहते हुए लौट गये कि जिस प्रकार द्वितीयाके चन्द्रमाके समान वर्धमान यशवाले तथा श्री-मोक्ष लक्ष्मीके गृहस्वरूप महावीर स्वामी- २० को निर्वाण प्राप्त हुआ है, उसी प्रकार हम लोगों ( एक पक्षमें देवगणों तथा दूसरे पक्षमें आश्रयदाता नेमिचन्द्र एवं कवि श्रीधर ) को भी उसकी प्राप्ति हो, जिससे इस संसारमें लौटकर न आना पड़े॥२३३॥
कवि और आश्रयदाताका परिचय एवं भरत-वाक्य नाना प्रकारके सुरवरोंसे स्फुरायमान वोदाउव (बदायूँ, उत्तर प्रदेश) नामके मनोहर नगरमें जायस वंशरूपी सरोजोंके लिए दिनेशके समान तथा प्रतिदिन अपने चित्तमें जिनेशको धारण करनेवाले नरश्रेष्ठ सोमइ ( सुमति ? ) के यहाँ उत्पन्न तथा गुणोंकी आधार भूमिके समान साधुस्वभावी नेमिचन्द्रके कथनसे बील्हा (नामकी) माताकी कोखसे उत्पन्न तथा सभी जनोंके साथ स्नेह प्रकट करनेवाले श्रीधर ( नामके कवि ) ने त्रिकरणों-मन, वचन एवं कायरूप योगोंको वशमें करके असुहर नामक ग्राम चिरकालसे अजित पापोंका क्षय करनेवाले एवं शुभंकर वर्धमान जिनचरितकी रचना, नृपति विक्रमादित्यके कालमें नित्योत्सव तथा श्रेष्ठ तूरादि वाद्य ध्वनियोंसे सुन्दर नब्बे सहित ग्यारह सौ वर्ष बीत जानेपर अर्थात् ११९० की ज्येष्ठ मासके प्रथम पक्ष ( शुक्ल पक्ष ) में पंचमी ३ सूर्यवार ( रविवार ) के दिन जब सूर्य गगनांगनमें था, की।
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