Book Title: Vaddhmanchariu
Author(s): Vibuha Sirihar, Rajaram Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 387
________________ 10 २८४ बड्डमाणचरिउ जो गुण-दोसहँ जाणई वियार जो परणारी-रइ णिव्वियारु । जो रूव विणिज्जय मार वीरु पडिवण्ण वयण धुर धरण धीरु । घत्ता-सो महु उवरोहें णिहय विरोहे, पट्टलु साहु गुणोह-णिहि । दीसइ जाएप्पिणु पणउ करेप्पिणु उप्पाइय भव्वयण दिहि ।।६।। १७ तं सुणिवि पयंपिउ सिरिहरेण जिण-कव्व करण विहियायरेण । सच्चउ जं जंपिउ पुरउ मज्झु पइ सभा बुह मइ असझु। पर संति एत्थु विबुहहँ विवक्ख बहु कवड-कूड-पोसिय-सवक्ख । अमरिस धरणीधर सिर विलग्ग णर-सरुव तिक्ख मुह कण्ण लग्ग । असहिय पर-णर-गुण-गरुअरिद्धि दुव्वयण हणिय पर कज्ज सिद्धि । कय णासा-मोडण मत्थरिल्ल भूभिउडि-भंगि जिंदिय गुणिल्ल । को सक्कइ रंजण ताहँ चित्तु सजण पयडिय सुअणत्तरित्तु । तहिं लइ महु किं गमणेण भव्व भन्वयण बंधु परिहरिय गव्व । तं सुणिवि भणइ गुण-रयण-धामु अल्हण णामेण मणोहिरामु । एउ भणिउं काई पइँ अरुह भत्तु किं मुणहि ण णट्टलु भूरि सत्तु । घत्ता-जो धम्म धुरंधरु उण्णय कंधरु सुअण सहावालंकरिउ । अणु दिणु णिच्चल मणु जसु वंधव यणु करइ वयणु णेहावरिउ ॥७॥ __10 १८ जो भव्व भाव पयडण समत्थु ण कयावि जासु भासिउ णिरत्थु । णायण्णई वयणई दुज्जणाहँ सम्माणु करइ पर सज्जणाहँ । संसग्गु समीहइ उत्तमाहँ जिण धम्म विहाणे णित्तमाहँ । णिरु करइ गोटि सहुँ वुहयणेहि सत्थत्थ-वियारण हियमणेहिं । किं वहुणा तुज्झु समासिएण अप्पउ अप्पेण पसंसिएण । महु वयणु ण चालइ सो कयावि जं भणमि करइ लहु तं सयावि । तं णिसुणिवि सिरिहरु चलिउ तेत्थु उवविट्ठउ गट्टलु ठाई जेत्थु । तेणवि तहो आयहो विहिउ माणु सपणय तंबोलासण समाणु । । जं पुत्व जम्मि पविरइउ किंपि इह विहि-वसेण परिणवइ तंपि । खणु एक्क सिणेहें गलिउ जाम अल्हण णामेण पउत्तु ताम । घत्ता-भो णट्टल णिरुवम धरिय कुलक्कम भणमि किंपि पई परम सुहि । पर-समय-परम्मुह अगणिय दुम्मह परियाणिय जिण-समय-विहि ॥८॥ 10 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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