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१०. २९. ११] हिन्दी अनुवाद
२६१ अंगुल प्रमाण बताया है। निर्ग्रन्थों द्वारा यह स्वयं ही जाना हुआ है। अन्य दूसरी-तीसरी नरक पृथिवियोंके नारकियोंके शरीरके प्रमाण दूने-दूने ( अर्थात् दूसरी पृथिवीमें पन्द्रह धनुष, दो हाथ ५ और बारह अंगुल, तीसरी पृथिवीमें एकतीस धनुष, एक हाथ, चौथी पृथिवीमें बासठ धनुष, दो हाथ, पाँचवीं पृथिवीमें एक सौ पचीस धनुष, छठवीं पृथिवीमें दो सौ पचास धनुष, प्रमाण शरीर हैं। इसी प्रकार सातवीं पृथिवीके नारकियोंके शरीर का प्रमाण पांच सौ धनुष है। ( इन्हें ) जानो और विरक्त बनो।
प्रथम नरकमें एक सागर, दूसरे नरकमें तीन सागर, तीसरे नरकमें सात सागर, चौथे १० नरकमें दस सागर, पाँचवें नरकमें सत्रह सागर, छठवें नरकमें बाईस सागर और सातवें नरकमें तैंतीस सागरकी उत्कृष्ट आयु जिनेन्द्र द्वारा कही गयी है।
जघन्य आय इस प्रकार जानो-प्रथम नरकमें १० सहस्र वर्षकी जघन्य आय मानो तथा प्रथम नरककी जो उत्कृष्ट आयु है, वही दूसरे नरककी जघन्यायु समझो। जो दूसरे नरककी उत्कृष्ट आयु है, वही पापोंसे आच्छन्न तीसरे नरककी जघन्य आयु है।
१५ हे शक्रेन्द्र, इसी प्रकार अन्य नारकों की भी जघन्य आय समझो और दूसरों की शंकाका निवारण करो।
घत्ता-उन नारकी जीवों का वैक्रियक शरीर होता है जिनकी आयु महादीर्घ होती है। वहाँ दुष्प्रेक्ष्य घन तिमिरवाले अधोमुखी विस्तीर्ण विवर होते हैं । जहाँ वे रमण किया करते हैं ॥२२१॥
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देवोंके भेद एवं उनके निवासोंकी संख्या इस प्रकार मैंने हे सुरपति, नरकवालोंको कह दिया है। अब तुम पुनः एकाग्र-चित्त होकर ( देवोंके विषयमें भी ) सुनो।
भवनवासी देव दस प्रकारके हैं, व्यन्तर देव आठ प्रकारके, ज्योतिषी देव पाँच प्रकारके, वैमानिक देवोंमें कल्पोपपन्न देव सोलह प्रकारके, कल्पातीतोंमें नव ग्रैवेयक, नव अनुदिश और पांच अनुत्तर भेदवाले विमान हैं। इनकी रचना तुम्हें बताते हैं
_प्रथम रत्नप्रभा नामकी पृथिवीमें नारकीय शक्तिके नामानुरूप जो खरबहुल एवं पंखबहुल नामसे प्रसिद्ध दो खण्ड ज्ञानियोंने प्रत्यक्षरूपसे देखे हैं, सो सुनो, उनके ऊपर असुरकुमार जातिके भवनवासी देवोंके चार गुने सोलह अर्थात् चौसठ सहस्र ( चौसठ लाख ?) सुवासित निवास भवन हैं । नागकुमारोंके चौरासी लाख, सुवर्ण वर्णवाले सुपर्ण (गरुड़ ) कुमारोंके बहत्तर लाख, आशा ( दिक् ) कुमार, अनल ( अग्नि ) कुमार, मकरघर ( उदधि ) कुमार, द्वीपकुमार, स्तनित- १० कुमार ( मेघकुमार ) एवं विद्युत्कुमारों, इन छहोंमें प्रत्येकके छिहत्तर-छिहत्तर लाख मनोहर गृह कहे गये हैं, उन्हें मानो। ( इस प्रकार वातकुमारोंके भी छानबे लाख भवन जानो) इन सभी कहे हुए भवनोंको एक साथ मिला देनेसे वे कुल सात करोड़ बहत्तर लाख भवन होते हैं।
उक्त भवनोंमें सात करोड़ बहत्तर लाख ही कुसुम सुगन्धिके वशीभूत भ्रमरोंसे युक्त जिनेन्द्र । गृह कहे गये हैं ( क्योंकि प्रत्येक निवासमें एक-एक जिनेन्द्र गृह बने हुए हैं )।
भूतोंके चौदह हजार निवास गृह हैं, तथा राक्षसोंके निवासस्थान भूतोंकी अपेक्षा सोलह गुने अर्थात् दो लाख चौबीस हजार हैं।
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