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व माणचरिउ
= हुआ; पुन्न (८|१७|१२ ) = पुण्य; लिंते (२१९१४ ) = लेते हुए; पाउ ( ९।३।१२ ) = पैर, माइ (९/४/६) माँ, धस्थ (९|४|१० ) = तिरस्कारसूचक शब्द धोरा (९।६।१४, बुन्देली ) = धवल; मिस ( ९|१३|१० ) = बहाना; बक्खाण (१०।११।९, हरियाणवी, पंजाबी, राजस्थानी, बुन्देली आदि) = | = बखान अर्थात् व्याख्यान या कथन; महिय ( १०1१८1३ ) = मिट्टी; तोड (१०|३२|१३ ) = तोड़ना; दूणु दूणु (१०|२८|४) = दूना-दूना, वइसइ (१०।१८।३, १०।२४५११, १०।२५।९, भोजपुरी, मैथिली) = बैठने अर्थ में भक्खिउ ( १०।२६।९ ) = खानेके अर्थमें बुड्ढ (१०|३८|५ ) = बुढ़ापा सारि ( १०१२६ । १० ) = स्मरण, सि ( १०१२६१८, हरियाणवी, पंजाबी) = होने के अर्थ में; चउदह (१०१३४१८) = चौदह; गले लग्गी ( ४१७१४, बुन्देली ) = गलेसे लगना; गहीर ( ११८१८ ) = गहरा होति ( ३।९।११) = होती है; देक्खण निमित्त (५/९/९, हरियाणवी, पंजाबी, राजस्थानी)= देखनेके निमित्त फाडिउ ( ५ | १७|१७ ) = फाड़नेके अर्थ में; लट्ठि (५/१९/४ ) = लाठी; कहार (४।२१।१५) = पालकी ढोनेवाला ।
२३. परसर्गों में कविने केरउ ( ४१२२१९), केरी ( १३६ | ६ ), तणिय ( १ । ६।६ ), तणउ ( ३ | ३०१४, ५/८/१२ ) के प्रयोग प्रमुख रूपसे किये हैं ।
२४. ध्वन्यात्मक शब्दोंमें गडयडइ ( ५1५1१४), घग्घर ( घर्घर ) ( ६ । ११।१०), कलयल (१1८1१० ), रणरण (६।८।११), रुणझुण ( १४८|१), चिच्चि (१०।२४१९), चिटचिट, झल्लर (९।१४१११), रणझण (९|४|८), रड-आरड (९/९/१२ ) शब्द प्रमुख हैं । ये शब्द प्रसंगानुकूल हैं तथा अर्थ के स्पष्टीकरण में सहायक सिद्ध हुए हैं ।
२५. प्रस्तुत वडमाणचरिउमें कुछ ऐसे शब्दोंके प्रयोग भी मिलते हैं, जो हरयाणा, पंजाब तथा उसके आस-पास के प्रदेशोंसे सम्बन्धित या प्रभावित प्रतीत होते हैं । ये शब्द भाषा - विज्ञानकी दृष्टिसे महत्त्वपूर्ण हैं । उनमें से कुछ शब्द निम्न प्रकार हैं
तुप (४।१६।४ ) - घी, धविय ( ३।३१।१ ) = स्तुत, धुत्त (५/८1७ ) = कुशल, चतुर, रंधु (५।२०1१० ) = अवसर, विहू (७|१|१० ) = बहू, लंपिक्क ( ७।१५।१२ ) = लम्पट, अकूवार ( ८/१०१४ ) = समुद्र, उंदुर (९।११।११) = चूहा, घंघल ( ४ | ३|१० ) = कलह, तित्थ ( ७/२६ ) = तीक्ष्ण, धत्त (१०।२४।३ ) = ध्वस्त, वणसइ (१०।७१९ ) = वनस्पति, णिसिय (७/२/५ ) = न्यस्त, विच्छुल (९१४/५ ) = विस्तृत, गीढ (९।६।२२)
=
- घटित, पच्छल ( ९/४/५ ) = पृथुल, आहुट्ठ ( ९।६।३ ) = हूँठा ( अर्थात् साढ़े तीनकी संख्या ), इयवीर (९।२१।८) = अतिवीर, सा (१०|२८|१) = श्वान, गोलच्छ ( ४/७/५ ) = पूँछकटी गाय, पिल्लूर (४।१७।३) = छिन्न, णिवच्छ (४|२८|११ ) = नि:व्रज, णिक्किव (५/९/१० ) = निष्कृप, पवग्ग (५/२०१७ ) = पराक्रम, णुम (७।२।४ ) = स्थापन, उड्डंग (९।२१६ ) = उन्नतः ।
९. लोकोक्तियां, मुहावरे एवं सूक्तियाँ
'वढमाणचरिउ' में अध्यात्मवादी, व्यावहारिक लोकोक्तियों एवं मुहावरों तथा जनसामान्यके प्रचलित शब्दों का बाहुल्य पाया जाता है । लोकोक्तियाँ तो बड़ी ही मार्मिक बन पड़ी हैं। वर्ण्य प्रसंगोंमें गहनता लानेमें बड़ी सहायक सिद्ध हुई हैं। उदाहरणार्थ यहाँ कुछ उक्तियाँ प्रस्तुत की जा रही हैं ।
अध्यात्मपरक
सम्मत्त सुद्धि पयणइँ सोखु न कासु ( ६।१८।१२ ) ।
( सम्यक्त्व - शुद्ध किसके लिए सुखप्रद नहीं होती ? )
उष्णइ ण करइ कहाँ मुणिवयणु ( ६।१९।११ ) ।
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( कहिए कि मुनि-वचन किसकी उन्नति नहीं करते ? )
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