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सन्धि ६
१
मागधदेव, वरतनु व प्रभासदेवको सिद्धकर त्रिपृष्ठ तीनों खण्डों को वशमें करके पोदनपुर लौट आता है
इसके बाद नर व खेचर राजाओंके साथ विजयने जिनपूजा की तथा कृष्ण - त्रिपृष्ठका ( गन्धोदकसे ) अभिषेक किया ।
पृष्ठ भी अपने ( विजयी - ) चक्रकी पूजा की, हर्षित होकर परिजनों को (मनोरंजनों द्वारा - ) रोमांचित किया । वन्दीजनोंके दारिद्रयको दूर किया । ( पुनः ) वह त्रिपृष्ठ अपने चक्रको सम्मुख करके दशों दिशाओंको जीतने की इच्छासे तथा प्रफुल्लित होकर खेचरोंकी ओर देखता हुआ चला । सुर प्रवर 'मागधदेव' तथा अन्य 'वरतनु' एवं 'प्रभास' तथा अनुक्रमसे अन्य सुन्दर एवं सबल देवोंको सिद्ध किया । पर्वतों एवं द्वीपोंके राजा भी भयाक्रान्त होकर भेंटोंके साथ आये, किन्तु उसने उन्हें वहीं छोड़ दिया । विद्वज्जनों द्वारा संस्तुत वह त्रिपृष्ठ कुछ ही दिनों में अपने तेजसे तीनों खण्डोंको वशमें करके तथा अपनी कीर्तिसे पृथिवीको धवलित करके खेचर एवं देवगणोंसे सम्मानित होकर निर्मल मनसे परिजनों के मध्य में उपस्थित हुआ । स्वर्गके समान १० गृहों की शोभासे आश्चर्यचकित देवों और खेचरोंके साथ वह त्रिपृष्ठ ध्वजा - पताकाओंसे सज्जित पोदनपुर में आया ।
घत्ता - कृष्ण - त्रिपृष्ठके प्रसादसे विद्याधरोंकी उत्तम विजयार्धं पर्वत श्रेणीको प्राप्त करके रिपुजनों को सन्तप्त करनेवाला वह ज्वलनजटी कृतार्थं हुआ ||११८||
२
. पोदनपुरनरेश प्रजापति द्वारा विद्याधर राजा ज्वलनजटी आदिको भावभीनी विदाई तथा त्रिपृष्ठका राज्याभिषेक कर उसकी स्वयं ही धर्मपालन में प्रवृत्ति
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" वैताढ्य ( विजयार्धं ) पर्वत शिखरपर निवास करनेवाले तुम जैसे समस्त विद्याधरोंके स्वामी अब ये ही ज्वलनजटी घोषित किये गये हैं । उत्तम विद्याओंसे सम्पन्न इन ( स्वामी ) की दुर्लभ आज्ञाओं का पालन तुम लोग शीघ्रतापूर्वक करते रहना ।"
विद्याधरोंको यह आदेश देकर प्रजापतिने उस ज्वलनजटीका श्रेष्ठ सम्मान कर उसे अन्य खेचरोंके साथ विदाई दी । खेचरेन्द्र ज्वलनजटी ( राज्यसम्बन्धी ) मनोरथ-प्राप्तिका मनमें विचार कर पोदनपुरपति प्रजापति से आज्ञा लेकर जब चलने लगा तब देवोंमें भी महिमा प्राप्त हलधर सहित पुरुषोत्तम (त्रिपृष्ठ ) तत्काल ही अपने उस ससुर ज्वलनजटीके चरणोंमें गिर गया और मणि - किरणोंसे स्फुरायमान मस्तक-मुकुट उसके दोनों चरणोंपर रखकर प्रणाम किया । कलंक - रहित अकीत्तिने भी दोनों ( बहनोइयों विजय एवं त्रिपृष्ठ ) का आलिंगन कर उन्हें विसर्जित किया ।
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