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६. १९.१६]
हिन्दी अनुवाद
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वह सौधर्मदेव चारण-मुनियोंके प्रति कृतज्ञता प्रकट करने हेतु उनकी सेवामें पहुंचता है
देवोंने उस मृगरिपु (-सिंहके जीव ) हरिध्वज-देवका जय-जय शब्दोंसे अभिनन्दन कर वन्दना की। मंगल-द्रव्य धारण करनेवाली मनोहारी देवियोंने तार स्वरसे मंगल-गीत गाये। देवांगनाओंके संगीतसे वह हरिध्वज देव भी जागृत हो उठा तथा उत्सुकतावश मनमें विचारने लगा कि-"मैं कौन हूँ, पिछले जन्ममें मैंने कौन-से उत्तम पुण्योंका संचय किया था ?" उसी (विचार करते ) समय उसने अवधि-ज्ञानसे समस्त संशयोंको दूर कर अपना समस्त पिछला ५ जीवन-चरित जान लिया ।
वह हरिध्वज देव अन्य देवोंके साथ पुनः (भरतक्षेत्र स्थित ) उन्हीं मुनिवरके चरणकमलोंमें पहुँचा और उसने प्रणाम कर स्वर्ण-कमलोंसे उनकी पूजा की फिर प्रसन्नतापूर्वक वहीं बैठ गया। चिरकालके बाद ( समाधि टूटनेपर ) मुनि द्वारा देखे जानेपर हर्षित चित्तपूर्वक उसने कहा-"पिछले जन्ममें आपने अपने हितोपदेशरूपी बड़ी भारी रस्सीके द्वारा अच्छी तरह १० बाँधकर पापरूपी कुएंमें पड़े हुए जिस सिंहका उद्धार किया था, वही सिंहका जीव मैं हूँ जो गगनको उद्योतित करनेवाले इन्द्रके समान देव हुआ हूँ।" ( आप ही ) कहिए कि मुनि-वचन किसकी उन्नति नहीं करते?
__ इस प्रकार कहकर तथा मुनि-पदोंकी पूजा कर वह देव प्रणाम कर शीघ्र ही अपने निवासस्थानकी ओर चला गया। देव-समूहोंसे अलंकृत वह हरिध्वज देव स्वर्गमें निवास करता हुआ भी १५ अपने मनमें प्रतिक्षण उन मुनिवरोंका स्मरण करता रहता था। जिनका नाम लेने मात्रसे ही पापोंका क्षय हो जाता था तथा जो उत्तम केवल-लक्ष्मीसे युक्त थे।
घत्ता-धर्मरूपी रथके चक्कोंको आशुगति एवं नियमित रूपसे चलाते रहनेवाले यशोधाम नेमिचन्द्र तथा कामवासनाको नष्ट कर, जयश्री निवास-स्थल श्री श्रीधर कविकी मैत्री (निरन्तर) बनी रहे ॥१३६॥
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छठवीं सन्धि की समाप्ति इस प्रकार प्रवर गुण-रत्न-समूहसे भरे हुए विबुध श्री सुकवि श्रीधर द्वारा विरचित साधु श्री नेमिचन्द्र द्वारा अनुमोदित श्री वर्धमान तीर्थकर देव चरितमें सिंह-समाधि
लाभ नामका छठवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥सन्धि ६॥
आशीर्वाद जो सदा जीवोंको प्रमुदित करता रहता है, जो सद्बन्धु जनोंके मनके सन्तापका हरण करता रहता था, जो सर्वज्ञके हितकारी महारथके चक्रकी नेमिके समान था ऐसा वह शुभमति ( आश्रयदाता) नेमिचन्द्र पृथ्वीतलपर जयवन्त रहे ।।
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