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६. १८. १२]
हिन्दी अनुवाद
__सिंहको प्रबोधित कर मुनिराज गगन-मार्गसे प्रस्थान कर जाते हैं
(हे सिंह-) तू ऐसा प्रयत्न कर, जिससे सहसा ही तेरे हृदयमें विशुद्धि उत्पन्न हो जाये। हे पंचमुख-सिंह, अब तेरी आयु मात्र दो पक्ष ( एक माह ) की ही शेष है, इसे तू निश्चय जान । अतः अब जो आयु शेष है उसमें (तु ) बतलायी गयी, त्रिकरण-विधिसे अपने ( समस्त ) पापोंको दूर कर । हृदयमें पंचगुरु धारण करके सारभूत समाधि द्वारा नित्य संन्यास धारण कर । हे निर्भय, एक ही भवमें तेरा प्रादुर्भाव भरतक्षेत्रमें होगा। दसवें भवमें तू देवों द्वारा प्रशंसित 'जिनवर' ५ बनेगा । ऐसा कमलाकर नामक मुनिराजने (तुम्हारे विषयमें ) कहा है । ( उन्होंने जो कहा था सो सब तुम्हें कह ही दिया ) अब आगे हमारा कुछ भी ( कार्य शेष ) नहीं रहा। ( उनके उपदेशपर ) हमने भी अपने मनमें श्रद्धान किया है। तथा तुम्हें भी सम्बोधित करनेके लिए उन मुनि ( कमलाकर ) का आदेश सुनकर ही मैं यहाँ आया हूँ। यद्यपि मुनिवर तो अपने मनमें निष्पह ही होते हैं तथापि भव्य जनोंके लिए वे स-स्पृह होते हैं। इस प्रकार कहकर, तत्त्व-पथका अनुशासन १० कर तथा शीघ्र ही सिंहके शरीरका स्पर्श कर।
__ घत्ता-समभावसे निश्चित वाणीवाले वे मुनिवर हरिवरके स्थिर नेत्रों द्वारा देखे जाते हुए गगन-मार्गसे चले गये ॥१३४।।
सिंह कठिन तपश्चर्याके फलस्वरूप सौधर्मदेव हुआ उन मुनिराजके चले जानेपर उनके विरहमें सिंहका मन अन-रत अर्थात् दुखी हो गया। सन्त-जनोंका वियोग, कहो कि, किसके दुखका कारण नहीं बनता ? किन्तु वह मृगपति मुनिवरके वियोगका दुख अन्तर्बाह्य परिग्रहोंके साथ ही त्यागकर तथा ( मुनि द्वारा कथित विधिसे ) अपना हित मानकर अनशन हेतु एक शिलापर बैठ गया। जब वह हरिणारि-सिंह अपना शरीर स्थिर कर शिलातलपर पड़ गया तब वह दण्डकी तरह स्थिर हो गया (चलायमान न हुआ)। ५ यतिवरके गण-गणोंके प्रति अति पवित्र भावनाओंसे वह सिंह शद्ध-लेश्या परिणामवाला हो गया। मनको अत्यन्त दुस्सह पीड़ा देनेवाली पवनसे आतप और शीत-परीषहोंकी पीड़ाको भी वह कुछ न समझता था। दंश-मशकोंसे डसा हुआ होनेपर भी वह समभाव धारण किये रहा तथा एक क्षणको भी उसने धैर्यका परित्याग न किया। क्षुधा और पिपासासे वह एक क्षणको भी विवश न हुआ । इस प्रकार वह सिंह जिनवरके गुणोंमें अनुरक्त रहकर ही मरा । शुभ धर्मध्यानके फलस्वरूप १० पापोंका क्षय कर वह मृगेन्द्र सौधर्म-स्वर्गमें गया और वहाँ मनोरम अमर विमानमें प्रबल-भुजाओंवाला हरिध्वज नामका देव हुआ।
घत्ता-उस देवका अनुपम-सौन्दर्यका निवासस्थल शरीर सात रत्ति प्रमाण था। सम्यक्त्वशुद्धि किसके लिए सुखप्रद नहीं होती ? ॥१३५।।
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