Book Title: Vaddhmanchariu
Author(s): Vibuha Sirihar, Rajaram Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 333
________________ २३० वड्डमाणचरिउ [१०.५.११सण्णिउँ छह पज्जत्तिउ धारइ सिक्खा-भाव-रयणु परिभावइ । एयहिं पज्जप्पंति ण जे जिय अमरहिं अपज्जता ते अगणिय । घत्ता-लग्गइ खणासु णित्तुलउ लइ जीवहो पज्जप्पंतहो । अंतर मुहुत्तु सव्वहो भुवणे भणइ वयणु अरहतहो ॥१९८।। णर-तिरियहँ ओरालिउ कायउ सुर-णारयह विउव्वणु जायउ । कासुवि आहारंगु मुणिंदहो तेउ कम्मु सयलहो जिय-विंदहो। दुविह भवंति तिरिय थावर-तस थावर पंच-पयार सतामस । पुहई आउ तेउ वाएँ सहु हरियकाय ण चलइ भासिउ महु । पुहईकाय मसूरी सण्णिहँ हुँति भणंति महामुणि णिप्पिह । सलिलंकाय संताव-णिवारण कुस-जल-लव-लीला सिरि धारण । तेय-काय परियाणि पुरंदर घण-सूई-कलाव-सम-संदर। वाउकाय णिण्णासिय-तणु-सम मारुव परि-विहुणिय-धयवड-सम । सरि-सर-सायर-सुरहर-राइहि तरु गिरि तोरण वसुवहिं वेइहि । पण्णारह कम्मावणि छेत्तहि अरुह पायगंधोय-पवित्तहि । गयणंगणि वंतेण सुसंठिय अंवरेसु वि गणेसु परिट्ठिय । एण पयारे तुह मई दाविउ एयह वासु कमेण न गोविउ । पत्ता-खर वालुआइ भिजइ णमहि णिब्भर सलिल-पवाहहिं । सही सिंचिय वंधणु लहइ वीयराय जिण साहहिं ।।१९९।। ६. १. D. ला । २. J. V. वि। Jain Education International For Private & Personal Use Only _____www.jainelibrary.org

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