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७. १६.१२ ]
हिन्दी अनुवाद
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रात्रि, अन्धकार एवं चन्द्रोदय- वर्णन
सन्ध्या,
संसारके अन्ततंमको असतियोंके समान शीघ्र ही रंजायमान करनेवाली, सन्ध्या पहाड़ी नदीकी तरह बहकर उपस्थित हो गयी । उसी अवसरपर सर्वत्र समस्त तस्करोंको आनन्दित कर देनेवाला, सुखीजनों के लिए दुर्जनोंकी तरह दुखकारी तथा नवीन पावससे उत्पन्न कीचड़ द्वारा भग्न मार्ग की तरह ही तिमिर-समूह दौड़ा चला आया ।
रत्न-विनिर्मित देदीप्यमान दीपमालाओंसे भवनोंका अन्धकार समाप्त हो गया। ऐसा प्रतीत ५ होता था, मानो अन्धकारको नष्ट करने हेतु रविने ही उन्हें ( उन दीपमालाओंको ) प्रेषित किया हो अथवा मानो प्रिय - चन्द्रमाने अपने किरणांकुरों को ही आदेश देकर भेजा हो ।
मधुर भाषिणी विचक्षण दूतियाँ प्रियाओंके लिए कामीजनों द्वारा सूचित स्थलोंकी ओर मन्द मन्द पदचापसे लेकर चलने लगीं ।
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इसी बीच में शीतभानु- चन्द्रमाका उदय हुआ । ऐसा प्रतीत होता था, मानो वह तिमि - १० रारि - उदयगिरिसे ही अनुलग्न हो । यामिनीरूपी कामिनीको अन्धकाररूपी शबर द्वारा सुरतकेलियों सहित भोगे जाते देखकर मानो वह चन्द्रमा तत्काल ही लोहित शरीर-जैसा प्रतिभासित होने लगा । वह ऐसा प्रतीत होता था, मानो दुस्सह कोपाग्निसे ही भर उठा हो । सज्जनोंके वचनों की तरह ही रज एवं स्वेद-जलका हरण करनेवाली किरणों द्वारा
घत्ता—तपसे क्षीण एवं पथके श्रमसे थके हुए सज्जनोंके लिए बड़ा सुख प्राप्त हुआ । किन्तु १५ यदि किसका शरीर हर्षंसे आप्लावित न हो सका तो वह था एक मात्र लम्पटी वर्गं ॥ १५१ ॥
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चन्द्रोदय, रात्रि - अवसान तथा वन्दीजनोंके प्रभातसूचक पाठोंसे राजाका जागरण
रागी पुरुषका कोई भी ( अभिमत ) कार्यं सिद्ध नहीं होता । उसके द्वारा विचरित सुविधि भी विपरीत हो जाती है । यही सोचकर मानो मन्दरुचि चन्द्रमाने अन्धकारके हननके निमित्त अपने रागत्व ( लालिमा ) को छोड़ दिया ।
तिमिर-समूहका संहार करनेवाले चन्द्रमाके पाद ( किरण-समूह, दूसरे पक्ष में चरण )प्रहारों से कुमुदिनी ( क्रुद्ध न होकर ) प्रफुल्लित ही होती है । सम्मुख विराजमान (कान्त ) पतिका विलास क्या रमणीजनोंके लिए सुखका कारण नहीं बनता ? तत्काल ही चन्द्र-किरणोंसे अन्धकार नष्ट हो गया । उसी समय हरिषेण अपने रतिगृहमें गया । वहाँ अपनी कान्ता ( पट्टरानी ) के साथ कामकेलियाँ करते-करते श्रमाहत गात्र होकर वह ( हरिषेण ) सो गया ।
इसी बीच में अपनी किरणों द्वारा लोगोंके सुख प्रदान करनेवाले हिमकर - चन्दाको चंचल तारोंसे युक्त पश्चिम दिशा के साथ आलिंगन करते हुए देखकर निशा- यामिनीरूपी पत्नीने अत्यन्त कुपित होकर ही मानो शीघ्र ही ( अपने ) कुमुदरूपी नेत्रोंको कुछ-कुछ मुकुलित कर विपरीतताको धारण कर लिया है। उस राजाको प्रबोधित करने ( सोनेसे जगाने ) हेतु ( राजभवन के ) प्रांगणमें वन्दीजन सुखकारी एवं प्रियकारी पाठ करने लगे ।
धत्ता - वन्दीजनों द्वारा किये गये सज्जनोंको प्रसन्न करनेवाले पाठोंसे राजा हरिषेण विनिन्द्र ( निद्रारहित ) हुआ और वह उत्कण्ठित होकर प्रियतमा के भुज पाशोंको छोड़कर अपनी शय्यासे उठा || १५२॥
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