________________
८. १७.१३ ]
हिन्दी अनुवाद
१६
मुनिराज नन्दनकी घोर तपश्चर्या
५
अत्यन्त उग्र एवं दीप्त तपरूपी दुस्सह अग्निसे समस्त कर्म-मलोंको जला दिया । नागके समान जितने भी विषय हैं, वे उसे अल्प मात्रामें भी न जला सके, तो इसमें आश्चर्य की बात ही क्या थी ? ( अर्थात् उसने समस्त विषय-वासनाओंको जला डाला था ) । अति भक्तिभारसे सिर झुकाकर कोमल वाणीसे प्रणाम करनेवालोंपर न तो वह सन्तुष्ट होता था और न ही क्रोधके वशीभूत होकर छेदन, भेदन एवं मारणमें रत रहनेवालोंपर वह ( कभी ) रूसता ही था । रत्नत्रय एवं तपोबलसे ( कोई भी ) साधक रत्न - कांचन ( आदि ) उसी प्रकार छोड़ देता है जिस प्रकार कि धूलि । वह लाभालाभमें समान भाव तथा निर्मल करुण स्वभाव प्रकट करता था । संयोग और वियोगको अपने मनसे ही नहीं मानता था, हृदयको गुणोंसे जीतता था । स्वभावसे ही अति सुहावनी २२ परीषहोंसे वह ( कभी भी ) चलायमान नहीं होता था । भवसागररूपी भवनसे निवारण करनेवाली सोलह भावनाओंकी आराधना किया करता था । तीर्थंकर गोत्र १० प्रकृतिका बन्ध करनेवाले मुनिवरोंको भक्तिपूर्वक प्रणाम किया करता था ।
शम-श्रीसे भूषित उसने उन ( आभ्यन्तर ) तपोंको तप कर अपने तेजसे कर्मरूपी तिमिरसमूहको उद्दीप्त कर दिया । ( प्रकाशित कर दिया ) । निर्मल किरणोंवाला सूर्य मण्डल क्या गगनतल मेघ -समूह पाकर सुशोभित नहीं होता ?
घत्ता - अल्पज्ञानी मनुष्य भी जगत्में जनोंके लिए दुर्लभ उपदेशके लाभको पाकर निरुपम धर्म ग्रहण करते हैं, तथा दयार्द्र बुद्धिसे वे गजादिके समान ही उपशमको प्राप्त होते हैं ॥ १६९॥
१७
मुनिराज नन्दन प्राण त्यागकर प्राणत-स्वर्गके पुष्पोत्तर विमान में इन्द्र हुए
Jain Education International
१९५
अपने कार्यकी सिद्धि देखकर निर्मल मनवाले भव्यजन उसकी सेवा किया करते थे । ( ठीक कहा गया है ) फल-फूलोंसे नम्रीभूत आम्रकलियोंका क्या भ्रमर-समूह वरण नहीं करता ?
इस प्रकार जब वह नन्दन दुश्चर तप कर रहा था, तभी उसकी आयु मात्र एक मासकी शेष रह गयी । उसी अवसरपर उसने तरंगविहीन स्थिरतर समुद्रकी तरह अपने अन्तरंगका शमन किया तथा विन्ध्यगिरिके शिखरपर जिनपदोंमें अपना मन विनिवेशित ( संलग्न ) कर शिवपदमें समर्पित कर दिया ।
उन अनिन्द्य मुनीन्द्रने प्रायोपगमन विधिसे धर्मध्यानपूर्वक प्राण छोड़े तथा प्राणत-स्वर्गके पुष्पोत्तर - विमान में त्रिदशराज इन्द्र हुआ । विमल अंगवाले उस इन्द्रकी आयु बीस सागरकी थी । उसके मदनके तापको सुर-सुन्दरियाँ शान्त किया करती थीं। 'यह इन्द्रमित्र उत्पन्न हुआ है' यह जानकर देव अपने हस्तकमल जोड़कर उसकी सेवा करते थे । उन्होंने विनयपूर्वक उसे सिंहासनपर बैठाकर अभिषेक किया और रक्त कमलकी द्युतिको हरनेवाले उसके रम्य चरणोंको अपने मुकुटोंपर लगाया । हर्षित देहवाले वे उनकी पूजा एवं स्तुति करते थे । ( सच ही है ) इस संसार में पुण्यसे क्या-क्या प्राप्त नहीं हो जाता ? वे उसे भावी जिनवर - तीर्थंकर जानकर उसके भवत्रासको मिटानेवाले चरण-युगलकी वन्दना करते रहते थे ।
For Private & Personal Use Only
१५
५
१०
www.jainelibrary.org